Saturday, December 01, 2012


जब भी सुनता हूँ
ये समाज और रिवाज़ वाली दुहाई
जब भी पढता हूँ
ये संस्कृति और शिष्टाचार की लड़ाई
ताक कर देख लेता हूँ कि
आख़िर ये आवाज़ उठी कहाँ से है
कौन सा कूचा है
मुहल्ले की विरादरी क्या है

अक्सर वही लोग मिल जाते हैं
जिनकी वासनाएं और छिछोरी ख्वाइशें
रोशंदानियों से झाकती रह गयीं,
जब उनके पंख छोटे छोटे थें
पर दीवारों के डर से बहार नहीं निकल पायीं।

वही आवाज़ रहती है,
जिसमे नंगापन बहुत था, और
जिनकी गूंज अंजान जिस्म को चूसने के लिए बौराई रहती थी
लेकिन समाज के लिहाज़ में
बस पानी में बुलबुला बन कर रह गयें।

नाखूनों से गलियों की दीवारों पर
ज़िस्म खरोचने वाले
जब shawl ओढ़ाने आते हैं,
मैं और भी ज्यादा नंगा होते जाता हूँ

Thursday, November 15, 2012

उस शहर में आशियाँ क्या ख़ाक बनायेंगे



उस शहर में आशियाँ क्या ख़ाक बनायेंगे
जिस शहर में झुग्गियों तले खून ना बहे

बुलडोज़रो से सपने कुचल दिए जाये जहाँ
गिद्ध को नाचते देखे बगैर सुकून ना रहे

शांति और सभ्यता तो दकियानूसी बाते हैं
कब्र है वो, जहाँ दरिंदगी का जूनून ना रहे

उस शहर में आशियाँ क्या ख़ाक बनायेंगे
जिस शहर में झुग्गियों तले खून ना बहे

Wednesday, September 26, 2012

आस्मां तुम्हारा इंतज़ार कर रही है




मैंने जब चलना सीखा होगा
माँ की ऊँगली पकड़कर
धीरे धीरे,
तब मैं भी आकाश की तरफ ताकता हूँगा
आज़ाद पानी की तरह बहते हुए
पंछियों को देखकर
मैंने भी अपने आसमान का दायरा नापा होगा

मेरी कल्पना के गुब्बारे
घूमते होंगे - अलसाए
उन वाले भेड़ो की तरह पहाड़ों पर
कूदते होंगे - बेफ़िकर
गिलहरियों की तरह जंगलो में

बचपन पन्नों के ऊपर से धुलता गया
मैंने पेट की लालच में
ईंट से दोस्ती कर ली थी
अब ख़याल,
बासी चेहरों की तरह लटकते हुए पपड़ी बनकर
दीवारों पर उभर आते हैं
और उड़ान की बातें
चहारदीवारी के भीतर दम तोड़ देती है

बचपना बहुत कुछ सिखाता है 
आज़ाद बनो
पंछियों की उड़ान की तरह
आस्मां तुम्हारा इंतज़ार कर रही है


Tuesday, September 25, 2012

दीमक


मेरे अन्दर एक दीमक है
वक़्त-बेवक्त
ख्यालों में सीलन लगने पर जाग जाता है
और धीरे धीरे चबाने लगता है
ख्वाइशों का एक एक पन्ना

जब पेट की भूख
सूखे पत्तों की तरह खड़ खड़ाने कर जलने लगती है,
तब
उसे शांत करने के लिए
समाज से बाल्टी भर पानी उधर ले आता हूँ
पानी सूंघते ही ख्यालों के जबड़ों में सीलन लग जाती है
दीमक जाग उठता है

लगाव


कभी जब मेरे शब्द केचुए की तरह
    मिट्टी में दिशाहीन रेंगते मिलेंगे
तुम चुपके से आकर
उनमे जादू फूंक देना

मुझे रेगिस्तान से बहुत लगाव है

Sunday, September 23, 2012

चटनी


दिन भर सिलबट्टे पर घिसा होगा माँ ने
            धनिया, हरी मिर्च और लहसुन
नमक और सरसों डालने में लगा दी होगी
      अपने अनुभव की सारी mathematics
                   ममता की सारी economics
तब कहीं,
चटनी में 'वाह' वाला स्वाद आया होगा
'आह' वाला हरा रंग आया होगा

तुमने पराठे जल्दी निगलने के चक्कर में
बाज़ार से tomato ketch -up खरीद लिया था

अब पूछते हो कि
मज़हब के नाम पर
सुर्ख़ रंग का खून क्यूँ बिकता है बाज़ार में

Wednesday, September 19, 2012

Chapters


उँगलियाँ तैरती जाती हैं
पन्ने पलटते रहते हैं
कहीं सिलवटें, कहीं करवटें
कहीं काले गुलाबी धब्बे
तो कहीं
ख़ुद को ही मैं छोड़ आता हूँ

इतने सारे Chapters गुज़र गए हैं कि लगता है
अनपढ़ रहता तो ज्यादा ख़ुश रहता  


उस आख़िरी कश के साथ,
मैंने ख़ुद में फिर से ज़िन्दगी फूंक ली

Monday, September 17, 2012

नक्काशियां


कुछ बिलियन साल पहले
राख़ की आंधियां
आवारापन में मशरूफ़ अकेले घूमती होंगी
चाँद और सूरज के इर्द गिर्द.

पानी ने अपने स्पर्श से इसलिए शायद
पत्थरों पर
जिंदगी की नक्काशियां सोची होंगी

पत्थरों को खुरेद खुरेद कर
हमने घर बनाया
खंडहरों में ख़ुदा खोजा
ख़याल खोजा
खज़ाना खोजा  
जंगल और शहर बनाया

पठारों को तराशते तराशते
पानी तो विलीन हो गया
पर, हम ख़ुद पत्थर बन गए हैं

Saturday, September 15, 2012

चिट्ठी



बहुत दिनों बाद खिड़की से पर्दा हटाया
तुमने लिफ़ाफ़े में जो चिट्ठी छोड़ी थी,
वो खिड़की के बाहर पड़ी पड़ी,
बारिशों में गुलज़ार हो चुकी थी

रेखाओं से टहनिया फूट चुकी थीं, और
आधे धुले शब्दों से फूल निकल आये थें.
उनपर वही सारी तितलियाँ बैठी थी,
जो तुमने मेरे कमरे में छोड़ी थीं

मैंने वो चिट्ठी वापस रख ली है
बिस्तर के तले;
आज तकिया मेरा फिर से गीला सा है

Tuesday, September 11, 2012


तेरे चेहरे की दरारों में लिक्खा है ये चाँद
कि तुने दिल अपना बहुतों में बांटा होगा

कमाल है


तुम्हारा DNA basis अलग होगा,
और मेरा शायद अलग
तुम्हारी चमड़ी गंगा से धुली होगी
हमारी जन्मजात नाले में घुली होगी
तुम फूल बनकर जन्मे थे,
मैं दलदलों में कहीं सड़ता होऊंगा

मेरी परछाईं भी,
तुम्हारे पुरखों का धर्म भंग करती है
मृत आत्माओं की तरह,
तुम्हे सुबह शाम तंग करती हैं

तुम्हारा भगवान्,
मंदिर के अन्दर बैठता है
और मेरा भगवान्,
सीढियों पर बैठ कर, सालों से
अन्दर जाने का इंतज़ार कर रहा है

कमाल है भाई साहब,
आप कुत्तों को भी पालते हैं, पुचकारते हैं
चाटते हैं
आदमी छूने में आपकी फट लेती है

चार-पांच लड़के


चार-पांच लड़के,
हाथो में कुल्हड़ वाली चाय लिए
बैठते थें, नदी किनारे;
कभी कभी देर तक बातें होती,
कभी देर तक ख़ामोशी सोती

चार-पांच लड़के देर तक
ताकते रहतें
पंछियों को, पत्थरों को
नदी को, जल स्तरों को
कभी कभी अचानक सभी हंस देते
कभी लौट जाते अहिस्ता, अकेले अकेले

चार-पांच दोस्त
college से graduate हो गयें;
आज भी लेकिन, खोज रहे हैं,
नदियाँ, पंछियाँ, पत्थर, और मुस्कराहट
और बचे अपने तीन चार दोस्तों को

Friday, August 31, 2012


मुहल्ले में तेरे नखरों के चर्चे हैं,
तेरी जुल्फों का फ़िर से हंगामा है;

हवस तू ये बता,कब दिल्ली छोड़ेगी?

फिर तेरी आवारगी, चराग़ सी इतराने लगी है
बंद रौशंदानियों से, रौशनी फिर आने लगी है

ख़ामोश ठहरा खँडहर, सदियों से यूँ बेज़ार था
ज़िन्दगी तेरी लुकाछिपी, फिर गुदगुदाने लगी है

Wednesday, August 29, 2012

Generation Gap

I was born in a middle class family and sent to a boarding school for my secondary education. We had a separate dormitory for class sixth entrants. I was a shy guy. I rarely talked to strangers and so I my initial days interactions were limited.

The very next day, I landed in the school, I was told to run 2 kilometers as my morning physical training exercise. I had no options, but to run. After that tiring 45 minutes exercise, we all returned to our dormitory. I felt too much tired, frustrated and home sick. While I was planning to frame some medical excuse for the next day, my hostel kids were challenging each other for the next race. I was shocked to see jubilation at their faces. These were all merely ten to eleven years old kid.

Boarding schools had their own ecosystem, their own social structures, their own universes. We used to wake up 4 am in the morning, clean their canvass shoes and compete each others in the ground. We hogged like pigs in the morning breakfasts, shouted our heart in the morning assemblies, strove to stay best in the class,  hogged like pigs in the lunch, exhausted ourselves in the playground, studied in the evening, hogged again in the nights.

I didn't have the luxury of playing games on computer until I joined the engineering college. Our school games never included digital interfaces. Most of my batch mates came from Hindi medium schools of villages in Bihar. Some of them had never seen something like color TV, cable connections, computers in their villages. Therefore, our seniors suggested us to carry pocket dictionaries all the time. We carried them most of the times. Infact, over the time, vocabulary competitions flourished as the best show-off technique for us.

We bloomed altogether to different personalities by the time we reached class 9th. Some of my friends were representing nation in NCC, sports, republic day parades and some of my friends were solving mathematics and physics of class 11th on their own. While some of those Hindi medium class 6th entrants were ready with their own English novels, some other had research papers in Hindi and History. Importantly, I was no more a shy kid :)

These were not all geeks or extraordinary kids. They just struggled a lot to strengthen their roots. They studied in the morning, but never left a chance to cross the boundary and pluck mangoes from principle's residence. They represented state in sophisticated events, but teamed up to build small canals and bridges in nearby villages.

Of my batch of 120 students, 40-45 joined Indian defense organizations (army, navy, air force), 30-40 joined IITs, NITs, IIMs and other premiere institutes, rest others are excelling in art, economics, cinema, etc.

Fifteen years down the line, I see a new generation. The kids are given better education, better facilities and better guidance. The parents are much more conscious about day to day activities of their kids. Every one is given laptops, ipads, and mobile to facilitate their grooming. They have access to facebook, gmail, computer apps, computer games, etc. These kids are given best possible exposure to English from their child hood.

I feel surprised when I read vowel less English, grammar less Hindi, baseless historical arguments, 'fuck offs', omg, rofls, etc.

May be I am yet to accept the generation gap!

Monday, August 27, 2012

Dreams

Moon couldn't answer all the questions, so people started exploring the Mars. 90s introduced crazy inflection points to the social survival curves in India. Ambassadors, Fiats and Padminis could not hold their charm for long. Liberalization was already introduced. We smelled the possibilities of multistorey apartments, air conditioned offices, coffee vending machines, US/Europe trips; we scanned the probabilities of our dreams basking on flat organizational platforms. The new generation engineers heard a similar degree of freedom and freshness in these acid free, tar free, coal free jobs as they heard in those newly introduced Lenon and Floyd songs.

Hello, is there anybody in there?
Just nod if you can hear me.
Is there anyone home?


Private jobs came with a bang and changed the DNA of all the social ideologies.

Coding was the buzz word.  Engineering colleges turned into gateway to so-called luxurious lives. Pre-graduation and graduation education diluted to the alphabets of C/C++ and other computing languages.We had a fabulous by product called 'salary slips' to slap and mute all the critics. Graduates were paid 5-6 times more than any government employee. Generations never heard of such salary packages for middle class family graduates. The white collar job also ensured their distances from corruptions, bribery and politics. We worked late nights, earned good and spent that lavishly.

Foreign trips and scope of outside India settlements metamorphosed creativity, knowledge, skills and desire in engineering colleges. We all study to earn and so it was all justified. Hefty salaries, album pictures on snow laden US streets, BMWs, Mercedes, flight travels were good enough to inspire people not to run for 'Sarkari Babu' jobs. 1995-2005 witnessed a huge decline in engineering graduates preparing for UPSC or IES. No one wanted social responsibilities to chain their freedoms.

We had good salaries, long sedans, apartments, US settlements, blah blah... We traded our social and cultural identities to explore the flat world. We traded our work life balance to have an air conditioned stay in offices. We skipped weekend sports to get paid enough and join gym and yoga classes.

Most of these private job holding guys spent months in the US/Europe. Many of them walked these days alone, away from their families, surviving on pieces of cheese breads. When their families were celebrating Holi, Diwali and Ganpati, they were gulping mugs of beer on any random melancholy tunes.

We know that we were cheated for our dreams, but we have compromised. We have signed an unsaid mutual pact with the life. We have all learnt to settle down on air-conditioned couches. 

Mars was as flawed for dream as moon was.


The child is grown, the dream is gone.
I have become comfortably numb.

Saturday, August 25, 2012

Innocence

तुम सान लेना रेत को 
मैं बांध लूँगा पेट को 
हम चाँद के किसी कोने पर,
रिश्ता जोड़ आयेंगे
रात भर ताकेंगे नीली रौशनी, धरती की 

ठेंगा दिखाकर दुनिया को
थोड़ी चांदनी 
ओढ़ आयेंगे 

Friday, August 17, 2012

Leh - Laddakh


It was 2 am in the night. All four of us were struggling to inhale oxygen in a small tent at that mountain top. Outside the tent in Sarchu, temperature was 5 degree Celsius. Noises of turbulent chilly wind and Indus river flowing beneath the mountain were creating internal, external and eternal chaos. All four of us had torrents of thoughts running inside our heads.



Salad, Shelter, Security and Sex do not make all the ingredients required to 'live'. Bored of mundane job life, stagnant weather and philosophical debates, we concluded to trip Leh on Bike. Unplanned and unstructured, we rented bikes from Manali to Leh. With the news of cloud bursts telecast on news channels, it was not best of the seasons to plan the trip. But Who CARES!

We started. It was all smooth, comforting and picturesque, untill we reached Rohtang. It rained previous night in Rohtang and therefore the roads near Rohtang were mired enough to only offer speeds of few cm/sec to buses and trucks. Those two hours turned out funny, exhausting, irritating and adventurous. I could hear the echoes of agneepath inside my funny head. Every one was searching for hope. Few of the travelers actually turned back from Rohtang only. Random stuffs like gum-boots, eno, cakes purchased from Manali turned out life saviors for those roads.

I did drop my new Samsung Galaxy phone on the bumpy road. Of the 0.001 probability to find it back after 5 km of travel, I turned out to be the lucky one. It was as blessing as enlightenment at that particular moment. Crossing clouds and stones through dark scary valleys at night we traveled till Keylong for the first day. I swear, the first cup of tea at Keylong was the most awesome thing that happened with us that night. Next morning we found ourselves wrapped in beautiful clouds under the influence of Buddhist chants and serene river flow. We moved ahead on one of the most finest roads and most difficult roads to Sarchu. Our night stay at Sarchu enlightened us with the existence and requirement of oxygen. Our tummies took loads of medicines, boiled water and Old Monk to struggle that low oxy-zone. We left Sarchu as early as possible to cover all other low oxygen area by the day time.

Royal Enfield is the most Loyal in field. We reached Leh on 3rd night, had glasses of 'nimbu pani' and fine dinner. Next day we covered Pangong Lake, Alchi monastry, passes, falls, mountains, plains, etc. It was quite interesting that any landscape with more than 4 houses were termed villages and more than 50 were considered somewhat close to cities. The villages are so beautiful. People are always ready to welcome you with maggie, yak milk, momos and beautiful smiles.



I have never been to Europe, but I suggest to visit the lanes of Manali to Leh before blindly praising Europe. Most of the visitors of Pangong lake consider themselves a part of 3 Idiots. Truly, we are so filmy in our existence. Aren't we :)

मुझको ऐसा ख्वाब चाहिए


मुझे जवाब चाहिए,
मुझे इंक़लाब चाहिए
रात को sensational news
चने के साथ शराब चाहिए

मुझे ख़िताब चाहिए
मुझे आदाब चाहिए
छिप कर करता रहूँ ज़ुर्म
मुझको ऐसा नक़ाब चाहिए

तुम्हारा कौम, मेरा धर्म
मुझे चेहरों तक का हिसाब चाहिए
धुंए से ढका शहर,
जलकर राख़ हो जाये
मुझको ऐसा ख्वाब चाहिए

क्या मुझको ऐसा ख्वाब चाहिए?

Thursday, August 09, 2012

Gangs of Wasseypur 2

नंगे पांव घुमने की ख्वाइश रखने वाला फैज़ल, चुतियापे में आकर, ख़ून से सना जूता पहन ही लेता है 
दुनिया का आख़िरी सत्य existence and conservation of चुतियापा है.  Gangs of Wasseypur starts with the platonic dream of a family concerned about ''इक बगल में चाँद होगा एक बगल में रोटियां" and concludes with same question. 5 दशक के उठा-पटक और eternal struggle के बाद वासेपुर में आखिरकार बस चूतिये ही बच पाते हैं.


Puffed between smokes of चिलम and Bullets, the movie continues to entertain with diversified characters, having varied reasons for their self existences. GOW 2 emphasizes the impact of cinema on various nukkads of our lives. नब्बे के दशक के बाद इंडिया में हर massive चुतियापा का 3 ही reason रहा है Politics, Sex and Cinema. GOW 2 ने बारीकी इसे document किया है.

Love-Hate relationship of a father's identity and his son's respect for him is depicted through one of the nicest scripts.The movie revolves around Faizal Khan and his desires to exist in his parallel universe. फैज़ल गले में रुमाल बांधकर अमिताभ बच्चन बनना चाहता था. फैज़ल के लिए सेक्स और धुआं ही उसके purest wild emotions थें. माँ को बुढ़िया, भाई को तोतला, बाप को संजीव कुमार बोलने वाला फैज़ल, उनके लिए उतना ही emotional था, जितना किसी को गोली मरने पर unemotional रहता थाGOW 2 is struggle for establishing an equilibrium between peace and vengeance. 

Kashyap has maintained a continuous flow with brilliant acting of mathematical (Tangent, Perpendicular, Definite) and non-mathematical (Ramadhir Singh, Sultan, etc) characters. Music and Lyrics are again treat to ears. There are plenty of witty scenes, bloodshed, moments of trust and deceptions.

Too much can be written about the movie. Its better to go and experience it through own perspectives.

Saturday, August 04, 2012

Identity

Certificates पर पड़े नाम से
आप समझ लेते हैं, सबकुछ;
सबकुछ ...
हमारा सच, हमारी सोच, 
हमारी संस्कृति, हमारी  राजनीति 

मैं birth certificate के गोत्र पर जन्म लेता हूँ;
दसबी, बारह्बी और graduation के grades
माँ बाप के उँगलियों की पकड़ define कर देते हैं.
मेरा job -description ,
मेरे अंतरात्मा की गूंज बन जाती है
मेरे अपने विचार,
आपके स्याही की खून सन जाती है

ये घर, कार और रुतबे की भूख आपकी,
और पेट मेरा मरोड़ता रहता है
ये मज़हब, ये जाति का तमगा आपका
और चादर मेरा सिकुड़ता रहता है

डरावनी है हमारी identity

Friday, August 03, 2012

फूहड़ता बिकती है

घर में, शहर में
जंगल, खेत, नहर में 
चूल्हे पर रोटियों की तरह सिकती हैं
फूहड़ता बिकती है 

हम मानने के लिए मान लेते हैं कि 
सामने वाला भद्दा और मैला है
हम चेहरा देख कर परख़ लेते हैं कि 
ज़ेहन में उसके पनपता हुआ सोच - विषैला है 

आईने में सब दिखता है
ये तम झाम,
ये शोर शराबा
अपनी दरिंदगी ही नहीं दिखती है
आईने का सच नहीं बिकता, फूहड़ता बिकती है

Friday, July 20, 2012

मैं तुम्हे शहर दिखाना चाहता था


अम्मा,
जब देर रात तक बिजली जाने पर,
तुम पंखा हौंका करती थी
जब बिना exhaust और बिन AC के
तुम तपती गर्मी...
चूल्हा चौका करती थी
मैं तुम्हे शहर दिखाना चाहता था

अम्मा,
जब बस 14 इंच के black and white पर,
सारा घर,
रंगोली देख देख कर रंगता था
जब सुरभि के एक एक ख़त पर
चाँद शरिखे,
सबका चेहरा टंगता था
मैं तुम्हे शहर दिखाना चाहता था

आज बड़ी बड़ी दीवारें हैं
ऊँची Buildings, AC वाली कारें हैं
मैं बालकोनी में चढ़कर
शहर का ज़हर, अकेले पी लेता हूँ.
झूट तुम्हे कहता हूँ कि, पेट भरा है
सच तो है कि
हर रात Maggie पर भूखा ही जी लेता हूँ

आज वो बारिश वाली सड़क नहीं है,
जहाँ कपडे गंदे करके, मैं घर हँसते हँसते आता था
अम्मा आज वो खाट नहीं है,
जिसपर मैं तौलिया लिपटे
superman बनकर रोटी तरकारी खाता था
इस LCD TV में black and white रंग नहीं हैं

अम्मा,
तुम शहर कभी मत आना

Saturday, July 07, 2012

दिलशाद


मैं हिन्दू ना हुआ तो सही,
गंगा में दीया तो बहा सकता हूँ
दिवाली में पटाखों की चमक,
होली के गुलाल में तो नहा सकता हूँ

मैं मुसलमान ना हुआ तो सही,
ईद की सवैयाँ तो खिलाओगे मियां
जब चाँद देखकर ज़िया फैलेगी वादियों में
मेरी मुस्कान पर भी
दिलशाद तो हो जाओगे मियां

Wednesday, July 04, 2012

जिंदा


बढती हुई इमारतें
पथरीली शुष्क इबादतें
जगती बेजान सड़क
पेट्रोल के जिस्म की महक

हँसते हुए मशीन
चौराहे - धूमिल गमगीन;
स्वस्थ कचड़े का पहाड़,
नाले के उस पार

सांस लेते छल्ले
इश्क़ फरमाते दल्ले
Generators के ठहाके
Computers के इलाके

शहर में हर निर्जीव जिंदा है, पर
आदमी की आत्मा मर गयी

Monday, July 02, 2012


आत्माएं नहीं मरती हैं, ज़मीर को भी मत मारिये
इक दिन शांति फैलेगी, इतनी जल्दी मत हारिये

मिटटी घड़े बनाती है, कीचड़ पर पत्थर मत मारिये
सब सुधरेगा जग सुधरेगा, अपनी गलती भी सुधारिए

भारत माता की जय बोलो


आप अपने बच्चों को,
concrete की बड़ी दीवारें, बढ़िया सोफा, बढ़िया कारें,
ख़ूब पड़ोसना चाहते थें;
आप उनके blue collar पर,
IIT , IIM , MBBS की degree
चाँद सरीखे, हर रोज़ खोसना (tag) चाहते थें

आप उन्हें देश का मतलब bank बताकर,
ख़्वाब का मतलब rank बताकर
Imported AC की luxury में ढक कर भूल गए
और आपके बच्चे,
morality के lectures बस रट रट कर, school गयें
अब झुग्गी में आग लगाकर, पेट भरो, bank भरो
बेशर्मी से बस 'मैं' बोलो
भारत माता की जय बोलो
भारत माता की जय बोलो

'धप्पा'


मिलते रहते हैं हमशक्ल, अक्सर
ज़िन्दगी तू 'धप्पा' बोलना छोड़ती नहीं


कबूतर उड़ाने से शान्ति आ जाती दिल्ली में गर,
ये दरबार, क़ब्रगाह के दसतूर, बिकता नहीं फिर.

आम आदमी


आम आदमी,
तमाम आदमी
राशन की दुकान में खड़ा
पेट के लिए struggle करता गुमनाम आदमी;

इलेक्शन के पहले, बकरे के दाम आदमी
और इलेक्शन के बाद बनता हुआ, ज़ुकाम आदमी
कभी कुर्सी, कभी जाति, कभी भगवान् के नाम पर
मरता, कटता बदनाम आदमी

हिंदी लिखी नहीं जाती,
अंग्रेजी bottle से निगल जाता कई जाम आदमी
दोपहर में भटकता खोजता है,
परिवार की रात, परिवार की शाम ...आदमी
आम आदमी,
तमाम आदमी

Politics


विदर्भ में भयानक सूखा,
उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में आकाल
बिहार में बाँध टूटी,
दिल्ली गंदे पानी से है बदहाल
बम्बई में रहने को जगह नहीं,
वहां, कश्मीर में पकता नहीं है दाल
कभी President पर बवाल
कभी पेस भूपति पर सवाल
किसी को दिखता है RSS का हाथ,
कोई बोलता है secularism की चाल
पूनम पांडे की ख़बर front page पर
RTI acticists की उधेर लीजिये खाल

महाराज, आपको चुना था नेता
मीडिया को बनाया था ढाल
आप दोनों ने हमें ही घोड़ा समझकर
हमपर ही ठोक दी नाल

ज़हर


हमारे अन्दर जो ज़हर है,
वो कुदरत का करिश्मा है
या pesticide का क़हर है?

पता नहीं क्यूँ


दिल्ली का तापमान,
ममता का स्वाभिमान
राहुल गाँधी की उमर
दहेज़ के संग कन्यादान

बढ़ रहे हैं, पता नहीं क्यूँ

जाति के नाम पर इंसान,
पानी के नाम पर किसान
सजदा करने वाले मौलवी
पुजारी, जिसे पता है भगवान्

लड़ रहे हैं, पता नहीं क्यूँ

बुजुर्गों के अनुभव की पोटली,
महर्षियों का समझाया गया ज्ञान
ग्रंथों में लिखी गयी संस्कृति
बच्चों में छिपा हुआ विज्ञानं

सड़ रहे हैं, पता नहीं क्यूँ

पुलिया


रास्ते खो जायें कहीं ना,
धुएँ की ख़ामोशी में...
शाम कब मूह फेर लेगा
अनकही मदहोशी में

मौला तूने महताब देकर
रात के आँचल की बदनामी बचा ली
मौला तूने हालह के नूर से
अब्र की अनकही गुमनामी छिपा ली

यार मौला,
मैं भी ख़ुद की शोर में, कहीं खो गया हूँ
इस अमावस मेरे सर पर भी
'shawl' रख देना

ये पुलिया थोड़ी लम्बी है

महताब - moon हालह - halo अब्र -cloud

तकदीर


आपने हुज़ूर
बतला दिया, जतला दिया कि
मैं महज़ वक़्त की दीवार में
इक बेहूदा दरार हूँ;
इस बड़बोली आवाम का,
लड़खड़ाती, बुदबुदाती जहान का
इक बड़बोला विकार हूँ;

आपने सुलझा दिया वो तिलिस्म,
कि नौकरी, नौकरों कि ज़ागीर नहीं होती;
आपने समझा दिया कि,
गुलाम के गुल्लक में
कौड़ी होते हैं..बस
गुलामों की अशर्फियों वाली,
तकदीर नहीं होती

Identity


दुनिया वाले जादूगर,
तुमने मेरी identity भी कैद कर दी,
email और telephone वाले sim-card के भीतर

आज कल डाकिया भी pin code नहीं पूछता

इंसान बनते हैं;


बह चूकी नदियाँ शराबी
धूल गयीं बातें किताबी
अब छोड़ कर, बातें गुलाबी
इंसान बनते हैं;
खण्डहर सा रात भर बैठा रहा परिवार मेरा;
अब शमशान वाली जिद्द हटाकर
मकान बनते हैं.
दरिंदो जैसे चीखकर, नोचकर
क्या मिला है - मुझको, तुमको?
नशे वाली रात काली,
इस रात से अब अनजान बनते हैं
अपने लिए, अपना ही
सम्मान बनते हैं

अब छोड़ कर, बातें गुलाबी
इंसान बनते हैं;

खेलते रहिये



आप महान salesman थें

आपको भूख लगी, तो आपने जात बना दिया
अपनी collar गन्दी रखी,
दूसरों के कपड़ों पर, उनका औकात सना दिया

आपकी चोटी, आपकी लंगोटी
धर्म का उद्गार बन गयें
आपके लिए,
दिन रात मरने वाले ही
आपके समाज पर भार बन गयें
आपका तिलक,
दिन रात नाली में सने, गरीबों के जिस्म से
ज्यादा पवित्र था?
आप स्वयं बन गएं भगवत के उत्तराधिकारी

आपका फेका हुआ boomerang
वापस लौट आया है
नेताओं, अभिनेताओं के लिए
relaxation बनकर
आम आदमी के लिए Reservation बनकर

खेलते रहिये

Wednesday, June 27, 2012

shawl

रास्ते खो जायें कहीं ना,
धुएँ की ख़ामोशी में...
शाम कब मूह फेर लेगा 
अनकही मदहोशी में

मौला तूने महताब देकर 
रात के आँचल की बदनामी बचा ली
मौला तूने हालह के नूर से
अब्र की अनकही गुमनामी छिपा ली

यार मौला,
मैं भी ख़ुद की शोर में, कहीं खो गया हूँ
इस अमावस मेरे सर पर भी
'shawl' रख देना

ये पुलिया थोड़ी लम्बी है   
  

Wednesday, June 13, 2012

दो alien
रात भर बैठे रहें,
lamp post के नीचे

शुन्य की बातें,
शुन्य सी बातें,
बनती थी, फिर
गुब्बारें बनकर अनंत में उड़ जाती थीं
दो alien
रात भर,
गुब्बारों की फूंक में भरे रहें

सुलझे धागे
उलझे हिस्से
दांत कांटे जूठे किस्से

तेरे प्याले की चाय बहुत नशीली थी
रात चुस्कियों की नरमी में बीत गयी

दो alien
रात भर बैठे रहें,
lamp post के नीचे

Resonance

किलकारियों से शुरू होकर,
कराहों में ख़त्म हो जाती है
बीच में यौवन का रूमानी 'आह आह'
और तूफानी 'वाह वाह'
कमाल का music system बनाया है उपरवाले 
उम्र के resonance में बजता है

Thursday, June 07, 2012

Twinkle Twinkle little star

Twinkle Twinkle little star
education गया भाड़ में, 
डाल दिया आचार

पैसा ही दोस्ती, पैसा ही प्यार
someone asked me reasons 
who the fuck you are?

Humpty Dumpty sat on a wall 
Imagination की माँ का...
बंद करो ये बबाल

काहे का poem, काहे का ताल
Share some dirty jokes
I will say lol

Baba black sheep have you any wool
रटते रहो syllabus,
बेटा ...वही है school

Engineering करो, फिर finance पढो
did you say passion ?
Are you a fool

Twinkle Twinkle little star
education गया भाड़ में,
डाल दिया आचार

धर्म , आत्मा, मसीहा

धर्म  


आपके और मेरे भगवान् में इतना फ़रक क्यूँ है?
धर्म और जाति की हमें इतनी ठरक क्यूँ है ?
आपने स्वर्ग की तमन्ना में ग्रन्थ तो लिख दिया,
'उसके' लिए सजाया सबकुछ नरक क्यूँ है?


आत्मा


आत्माएं नहीं मरती हैं, ज़मीर को भी मत मारिये
इक दिन शांति फैलेगी, इतनी जल्दी मत हारिये 

मिटटी घड़े बनाती है, कीचड़ पर पत्थर मत मारिये
सब सुधरेगा जग सुधरेगा, अपनी गलती भी सुधारिये 



मसीहा

नमक मिरच लगाकर ख़बर छौंक आते हैं
इक बड़ा झूंड बनाकर तनिक भौंक आते हैं
मसीहों को दामन में ज़िल्लत ही मिला है 
किसी बेबस-बेसहारा को यूँ ही हौंक आते हैं 

Tuesday, June 05, 2012

फट्टू हूँ मैं



फट्टू हूँ,
मदारी है दुनिया,
घूमता हुआ लट्टू हूँ
फट्टू हूँ...

समाज का, अनाज का
अस्तित्व का, रिवाज़ का
टट्टू हूँ.
सुबह से Programmed...शाम तक बजता हुआ रेडियो;
रट्टू हूँ...
फट्टू हूँ

कभी नौकरी का मोहताज़, कभी appraisal का
पैसे से लेकर, जिंदगी के हर ख्वाइश के लिए
चट्टू हूँ

ज़हर से पेट नहीं भरता है,
खाते पीतों को देख कर,माँ-बहन करने वाला
नज़र-बट्टू हूँ मैं

 फट्टू हूँ मैं

Thursday, May 24, 2012

आपके देखते देखते...

आपके देखते देखते
ये आग महँगी हो गयी है

सूखी टहनियां चैन नहीं दे पातीं हैं जब,
हम धर्म और जाति के बेफिज़ूल वज़ह सोचकर
कोई घर जला आ जाते हैं
बेफिज़ूल वाले वजह सोचते सोचते 
ये राख़ महँगी हो गयी है 
ये आग महँगी हो गयी है 

जब किसी अपरिचित के घर में
बहन बेटी सुलगाई जाती है,
पेट्रोल की हवस में दह्लाई जाती है
हम अख़बार के पन्ने पलटकर,
democracy पर दाग पोत आते हैं
democracy पर दाग पोतते पोतते
हर दाग महँगी हो गयी है
ये आग महँगी हो गयी है

धूप में पिसता हुआ किसान,
घिसता हुआ किसान
किसी भ्रष्ट के पेट की भूख में जल जाता है
पेट के लिए घिसते हुए
अब साग महँगी हो गयी है
ये आग महँगी हो गयी है

poverty line नीचे गयी, पर
हर घोल महंगा हो गया है
democracy में चीख़ नहीं सकतें
इंसानों का बोल महंगा हो गया है
क्या ख़ाक जलाएं विचारों को,
पेट्रोल महंगा हो गया है

आपके देखते देखते...

Saturday, May 05, 2012

किसे चाहिए?

रोटी, कपडा और मकान
खद्दर की लंगोटी, मीठा बनारसी पान
दो जून का चूल्हा,
बड़ा खुला मचान
किसे चाहिए? किसे चाहिए?

Generation बदल गया हैचाहते बदल गयी हैं
सेक्स, पैसा और दारु की दूकान
Virtual इश्क़, Search-ual ज्ञान
भाड़ में जाए सभ्यता,
संस्कृति दारु में डूब जाए विज्ञान

किसे चाहिए? किसे चाहिए?

चूहों को ज़हर देना ज़रूरी है

चूहों को ज़हर का डर ना हो तो,
क्रांति और इंक़लाब की बातें करने लगते हैं;
अचानक से किसी एक चूहे को
आज़ादी की भूख़ लग जाती है,
और उसकी भूख़ ख़ा जाती है, बाकी चूहों की सोच को


Physics जितना mass पर act करता है,
उतना ही सोच पर भी;
श्रृष्टि हर श्रृजन को अंडाकार बना देती है
ग्रहों को देखा है,
oval होते जाते हैं, और oval रस्ते पर घूमते जाते हैं;
सोच का भी वही खेल है.


एक चूहे की इन्क़लाबी सोच,
हज़ार चूहों को gravitationally pull करती है;
हवस का wave resonate करता है ,
फिर सब कुछ oval ही oval;
चूहे इन्क़लाबी हो जाते हैं.


Democracy में ज़हर देना जरूरी है
एक सिक्का, 
धीरे धीरे aluminium वाले पत्तों को पिघलाता रहता है 
hydrogen sulphate की तरह 
aluminium नहीं रहेगा, तो कटोरा कौन बनाएगा
भूख़ लगेगी तो क्रांति पनपेगी 
चूहों को ज़हर देना ज़रूरी है 

Wednesday, April 25, 2012

लड़खड़ाने लगा हूँ

तुम्हारी तस्वीर, आज भी बस, बटुए में  महफूज़ है
तुम्हारे हमशक्ल से गुज़ारा चला लेता हूँ आज कल 

ज़िन्दगी कुछ देर और ऊँगली पकड़ लेना; लड़खड़ाने लगा हूँ  

Saturday, April 07, 2012

All in all we are just another brick in the wall

चूल्हा जलता है,
भूख़ नहीं मरती 
बड़े बड़े दीवारों के पीछे
काली मैली परछाईयाँ हैं
सच का झूटा बुलबुला
बहुत सारे सच का खून पीकर बड़ा बनता है
 दो वक़्त की रोटी, एक पहर का दाल
All in all we are just another brick in the wall

धर्म और जाति का जन्म
सुरक्षा के लिए हुआ होगा
कभी शायद 
अब दीवारों पर सजाने के काम आता है
तुम धर्म और जाति बेचने आते हो,
बदले में मुझे ख़रीद जाते हो 

मुल्क की भूख़
और तुम्हारे चाय की चुस्की
कब शांत होगी ये ख़ूनी भूख़
कब थमेगा ये बवाल
All in all we are just another brick in the wall

Saturday, March 31, 2012

एक टुकड़ा भारत

विचार हूँ, विस्तार हूँ
द्वंद हूँ, विकार हूँ
स्वयं का हूँ रक्षक, स्वयं का संहार हूँ

मैं भी भारत हूँ

पिता हूँ
घर का पेट पालने के लिए,
अनंत बन जाता हूँ
और जिस दिन,
तुम आधे पेट सो जाते हो
तुम मुझे शुन्य बना देते हो;

शुन्य हूँ, अनंत हूँ
मृत स्थिर, ज्वलंत हूँ
तुम्हारा बंधक, तुमसे ही स्वतंत्र हूँ 

मैं भी भारत हूँ

बाबरी में जलता हूँ, 
गोधरा में जलता हूँ
मुंबई की गोलियां सहकर
कश्मीर में पिघलता हूँ
बुझी राख़ पर रखी ठंडी चिता हूँ
मैं माँ का जला हुआ आँचल
मैं झुग्गी संभालता हुआ पिता हूँ 

मैं भी भारत हूँ

मेरी अभिव्यक्ति भी तुम्हारे विचारों की कठपुतली है

उत्सव हूँ, संस्कृति हूँ
जनमत हूँ, राजनीति हूँ 
तुम्हारा बिध्वंश, तुम्हारी ही कृति हूँ

मैं भी भारत हूँ

Sunday, March 25, 2012

धर्म

अस्तित्व का भय,
बहुत मौलिक है;
उतना ही मौलिक
जितना, उसपर लिपा पोती करके 
धर्म का शंख बजाना

अगरबत्तियों और हुमाद की खुशबू से
रक्त चाप में संतुलन आता है.
मात्र संतुलन
एक संतुलन के लिए बहुत सारा संतुलन बिगड़ना
यह कौन सा धर्म है 

Wednesday, February 15, 2012

वक़्त

वक़्त
धीरे धीरे
ज़िन्दगी के पन्नों को घोलता रहता है
बढ़ता रहता है...
पीछे पलटकर देखता हूँ तो
इतिहास? सब इतिहास? बस इतिहास?

चुपके चुपके
कितनी रातें
ढिबरी में जल जाती हैं

धीरे धीरे सारी यादें,
किस्सों में ढल जाती हैं


यादों पर कभी हँसता हूँ,
यादों पर कभी रोता हूँ
फ़िर से जब भी,
यादों वाली गलियों में,
बचपन मैं खोजने बढ़ता हूँ
इतिहास! सब इतिहास! बस इतिहास!

Friday, January 06, 2012

Vulgarity

दीमक
खरोचते हैं
लकड़ियों को
उन्हें भूख से ज्यादा
लकड़ियों की रूखी आवाज़ पसंद है
सच कहूँ तो,
उस रूखी आवाज़ में जो vulgarity होती है
मुझे कई रात जागने पर मज़बूर कर देती है  
मैं जागता हूँ, क्यूंकि 
मुझे दीमक वाले ख्यालों के साथ
सोने में डर लगता है

Thursday, January 05, 2012

Woofing Chants

My lungs are swollen
The veins smell rotten
I have scratched my skin
to explore worthlessness

सच सच सच
ख़याल और विचार का स्वाद बहुत बेहूदा लगता है
किसी लकड़ी की कुर्सी पर बैठ कर
चाय पीने में जितना गला घुटता है, जितनी बेचैनी महसूस होती है
वैसा ही आज इन रास्तों को देख कर हो रहा है

I can't stare those yellow leafed dusky lanes
spread like my tongue dragged with husky veins
I have itched my socks, threads entangled in fingers
My nails stink like society

समाज, अकेलापन और फिर से समाज
शब्दों को नोच नोचकर स्याही बनाता हूँ
बड़ी बड़ी नशीली आँखें फिर स्याही में किरोसिन डालकर,
आग लगाती हैं
क्रांति, राख़ और फिर से क्रांति

कभी कभी
existence और non existence की absurdity ,
कान में जब  हथोड़ा मारती है
लगता है कि,
चीख़ कर फेफड़े और अतारियां सब निकल दूँ
पर एक escapist हूँ ना...
मरने से डरता हूँ


हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...