ज़िंदगी
एक बौरायी सी ख़ुशबू है
कभी भटकने से रोक लेती है,
और कभी भटकने को मज़बूर कर देती है.
सुबह
सूरज जैसे wrapper में लिपटा हुआ था
और उसके खुलते ही
हम 'ट्रेक्टर' पर बैठ कर,
सुबह की फ़सल काटने चल पड़े
बहस
तुम मुझपर चीख़ लो,
मैं तुमपर चीख़ लेता हूँ
पत्थरों को रगड़कर उजाला तो न हुआ
अपनी बहस से ही सही,
कहीं आग लगायी जाए
बस 'कंडक्टर'
मैं कुछ महीने भूखा भी सो लेता हूँ
पर सच्चाई जब पेट से लड़ने लगती है,
मुसाफ़िरों के सपनो को रस्ता दिखाना पड़ता है
इश्क़
मैं सवाल ज़वाब, हिसाब किताब नहीं समझता
तुम्हारा ख्याल जब भी आता है
खुले आकाश में बिखरे तारों की तरह
गंगा की स्वक्ष लहरों में,
चुपचाप अपनी चमक छोड़ जाता है.