Saturday, December 11, 2021

#पिता_पुत्र_डायरी

कल ऑफिस से लौटा तो अगस्त्य ने दरवाज़े पर आकर अपनी अस्पष्ट भाषा में चिल्लाते हुए स्वागत किया| उत्तर में मैंने दोगुनी आवाज़ में बेतुके वाक्य चीख़ कर उसका अभिवादन किया| प्रतिउत्तर में चौगुनी आवाज़ में चार टूटे फूटे वक्तव्य रख दिए गए| उसके पश्चात तीन सेकंड की शान्ति और ढेर सारी हंसी


Thursday, March 11, 2021

जो हैं नहीं वो चेहरा दिखलाये जा रहे हैं 
अपने से आईने को झुठलाए जा रहे हैं 

निकले थे भीड़ में बनने को हम मदारी 
मेले की डुगडुगी पर लहराए जा रहे हैं  

ठहरो कभी ख़ुद से दो चार बातें कर लो
ग़ैरों की महफ़िलों में पगलाए जा रहे हैं 

Monday, May 27, 2019

और जिस समय

और जिस समय 
गुलमोहर के बौराये डाल पर बैठे
कुछ मदमस्त गौरये 
बेपरवाह होकर झूल रहे थे 
एक फुनगी से दूसरी फुनगी पर

और जिस समय
किसी पिता की आँखें भर आयी थी 
जब उसके नवजात शिशु ने 
अपनी नन्ही उँगलियों से
उसकी उँगलियों को थामा था

और जिस समय
सब्ज़ पहाड़ों के आँगन में
नदियों से तराशे गए किनारों पर
फुदक रहे थे सफ़ेद ऊन से ढके मेमने 
और दौड़ रहे थे पुष्ट घोड़े

और जिस समय
अपने औलादों से कई मीलों दूर 
बंजर सरहदों पर बने टीलों में 
अगली गोली का इंतज़ार करता सैनिक 
अपने घर वालों को याद कर रहा था

और जिस समय
बाढ़ में फ़सल उजड़ने के बाद
मातम मनाते माँ बाप 
अपने बच्चों को भूखे पेट लेटाकर 
रात की लोरियाँ सुना रहे थे

और जिस समय
विरह की वेदना में 
फूट फूट कर रोता हुआ प्रेमी 
अपनी प्रेमिका को आखिरी अलविदा कह कर 
अचेत होकर गिर पड़ा था

और जिस समय
मैं और तुम उलझे थे 
दुनिया और समाज के वकवास में

उसी समय,
यही निर्दयी समय
निगल रहा था मेरा एक हिस्सा 
हमेशा हमेशा के लिए

सुनो,
गुड़हल की वो टहनी थी ना? 
जो पिछले तीनों मौसम से 
अवसाद में झूल रही थी 
उसके जर्जर जोड़ों पर 
हरी फ़ुनगी यूँ निकली है 
जैसे स्कूल के रिक्शा पर 
लटक के बच्चे जाते हैं 
लटक के बच्चे आते हैं

Tuesday, September 18, 2018

लिखो

लिखो तो ख़ुद को खोल कर लिखो 
सतहें छिल कर लिखो, 
आत्मा निचोड़ कर लिखो  
ढकोसले से भरी दनियादारी पर लिखो
तरस आ जाये तो लाचारी पर लिखो 

प्रेम को प्रेम लिखो
दर्द को दर्द लिखो
चाह को चाह लिखो  
घुटन को घुटन लिखो  

भीड़ में भरी उबासी पर लिखो 
हारे हुए मुहब्बत की उदासी पर लिखो 
लालच में डूबे समाज पर लिखो 
जोंक की तरह खून चूसते रिवाज़ पर लिखो 

लिखो तो यूँ लिखो कि 
लिखने वाले भी बस तुम, 
पढ़ने वाले भी बस तुम; 
लिखो कि सुई की तरह लिखो 
जो मवाद से भरे घाव को एक बार में फोड़ दे  

Saturday, September 08, 2018

वक़्त बीता, उम्र बीती और कुछ यूँ हुआ
भीड़ से बचते बचाते भीड़ सा मैं हो गया

Saturday, August 04, 2018

छतें टपक रही हैं
दीवारों में दरार है
पुरानी-नयी इमरतों का ढांचा
हमारी रीढ़ सा कमज़ोर
और बेकार है

गुज़रे हुए हादसे पर विचार कर रहे हैं
आने वाले हादसे का इंतज़ार कर रहे हैं
आँख, मुँह, कान बंद कर लिया है,
नए हादसे को तैयार कर रहे हैं|

किताबें फाड़ कर हथियार भर रहे हैं
भीड़ में भीड़ बनकर घास चार रहे हैं
पुरानी पट्टियों को धो धो कर
नए घाव का उपचार कर रहे हैं|

#पिता_पुत्र_डायरी

कल ऑफिस से लौटा तो अगस्त्य ने दरवाज़े पर आकर अपनी अस्पष्ट भाषा में चिल्लाते हुए स्वागत किया| उत्तर में मैंने दोगुनी आवाज़ में बेतुके वाक्य चीख़...