अपने सरगम पर इठलाती,
जी भर हंसती, चुप हो जाती।
रेत पे संवरी, नदी के तट पर,
पगली चूड़ी का स्पव्न सुना है;
मैं कलम नही, और न कोई दर्पण,
फिर भी तेरे उलझे धागों से,
मैंने अपना आकाश बुना है।
रंगोली के रंग में खिलती,
पगली चूड़ी का स्पव्न सुना है;
बातूनी इस चूड़ी से,
मैं डरता भी हूँ, लड़ता भी;
उसने कितनो को पगला बोला है,
ये तो कभी ना बतला पाऊंगा,
खनक पे भटके प्यासे प्याले,
गिन कर भी क्या कर पाऊंगा...
बड़ी बांवरी है, कागज की कश्ती,
पाकर भी इसे घबराऊंगा।
Thursday, February 19, 2009
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हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे
हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो हम लड़ेंगे युद्...
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जब कभी, मेरे पैमाने में, ख्वाइशों के कुछ बूंद छलक जाती हैं, तुम्हारी यादों की खुशबू, बहकी हुई हवाओं की तरह, मेरे साँसों में बिखर जाती हैं, ...
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कल ऑफिस से लौटा तो अगस्त्य ने दरवाज़े पर आकर अपनी अस्पष्ट भाषा में चिल्लाते हुए स्वागत किया| उत्तर में मैंने दोगुनी आवाज़ में बेतुके वाक्य चीख़...
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लिखो तो ख़ुद को खोल कर लिखो सतहें छिल कर लिखो, आत्मा निचोड़ कर लिखो ढकोसले से भरी दनियादारी पर लिखो तरस आ जाये तो लाचारी पर लिखो प...