ये कोई इत्तेफाक नहीं,
पर कभी कभी,
हम,
नदी के एक किनारे से
दूसरे तक,
लम्बी छलांग लगा देते हैं ;
या यूं कहें,
उस पार जाने के लिए,
इस पार सब कुछ गवां देते हैं॥
चाँद को चाहना,
बेहद कोई गुनाह नही,
आख़िर सारी दुनिया यही करती है,
गुनाह है ये,
हम चाँद से चाहने की उम्मीदे लगा देते है,
या यूं कहे,
चांदनी बटोरने के लिए
हम सब कुछ ग़वा देते हैं...
और, इस पार
तुम्हारी कविताओं की जगह,
किसी और को पढ़ा जाए,
तुम प्यासे ही रहो,
किसी और को भरा जाए
दर्द होने पर,
रो नही सकते;
तुम नाटक के किरदार कहलाओगे,
गुस्सा करने पर, भाग नही सकते
पागल घोडा बन जाओगे॥
ये इत्तेफाक नही,
तुम्हारा झोला अब खली है
शब्दों से सजाई दुनिया,
गन्दी सी एक गाली है
या यूं कहे,
छलांग लगाने के साथ,
हम ख़ुद का मजाक बना लेते है,
अक्सर चाहते चाहते
सब कुछ गवा देते हैं..
Tuesday, April 08, 2008
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