जब भी सुनता हूँ
ये समाज और रिवाज़ वाली दुहाई
जब भी पढता हूँ
ये संस्कृति और शिष्टाचार की लड़ाई
ताक कर देख लेता हूँ कि
आख़िर ये आवाज़ उठी कहाँ से है
कौन सा कूचा है
मुहल्ले की विरादरी क्या है
अक्सर वही लोग मिल जाते हैं
जिनकी वासनाएं और छिछोरी ख्वाइशें
रोशंदानियों से झाकती रह गयीं,
जब उनके पंख छोटे छोटे थें
पर दीवारों के डर से बहार नहीं निकल पायीं।
वही आवाज़ रहती है,
जिसमे नंगापन बहुत था, और
जिनकी गूंज अंजान जिस्म को चूसने के लिए बौराई रहती थी
लेकिन समाज के लिहाज़ में
बस पानी में बुलबुला बन कर रह गयें।
नाखूनों से गलियों की दीवारों पर
ज़िस्म खरोचने वाले
जब shawl ओढ़ाने आते हैं,
मैं और भी ज्यादा नंगा होते जाता हूँ