आज से दस पंद्रह साल पहले मुझे राजनीति में बस इतनी दिलचस्पी थी कि मैं quiz competitions के लिए राजनेता और राजनैतिक दलों का नाम याद कर लेता था| शायद उस समय राजनैतिक विचारधारा का ना होना उतना अबोध नहीं माना जाता था, जितना आज के समय में माना जाता है| आज यदि आप राजनैतिक चर्चाओं में सक्रिय किसी व्यक्ति को बोल दें कि आपको राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं, तो आपको बेचारा और ignorant समझ लिया जाएगा| इससे भी मज़ेदार बात ये है कि यदि आपने किसी व्यक्ति के राजनैतिक दृष्टिकोण के विरूद्ध कुछ बोल दिया तो आपकी पूरी कुंडली खोल दी जायेगी| आपने क्या खाया, क्या देखा, क्या सुना, आप किस बात पर हँसे, किस बात पर मुस्कुराएं और किस बात पर रोयें सब का पूरा analysis मिल जाएगा|
मैं यहाँ कोई moral high ground नहीं लेना चाहता| मैंने भी ख़ूब analysis किया है, मैंने भी कई कुंडलियां खोली हैं; मेरा भी ख़ूब analysis हुआ है, मेरी भी कई कुंडलियां खुली हैं| राजनीति के बाज़ार में कभी आप शिकारी होते हैं, तो कभी शिकार| ये खेल चलता रहता है| हालाँकि ये समझना ज़रूरी है कि इस पूरे उठा-पटक में आपने क्या पाया और क्या गंवाया|
चार पांच साल तक लिखने, पढ़ने, बात करने और हल्ला मचाने के बाद दो चीज़ें जो मुझे समझ आयी हैं वो ये है कि (a) हर किस्म की व्यक्तिगत आज़ादी बहुत महत्त्वपूर्ण है (b) किसी भी इंसान को समझने के लिए उसके जीवनकाल को समझना चाहिए, किसी एक point पर उसके विचारों का छीछालेदर करके उसपर निर्णय देना गलत होता है| अगर 16 अक्टूबर 1935 के दोपहर चार बजे चाय पीते हुए यदि गांधी ने बोल दिया कि "देसी चाय में fun नहीं आया", तो उनके उस स्टेटमेंट को बार बार दिखा कर उन्हें libtard बताना सही नहीं होगा| इससे पहले कि आप मेरा स्क्रीनशॉट दिखाएं मैं फिर से बता देता हूँ कि ये स्क्रीनशॉट वाली कई analysis मैंने भी की है, और वो उचित नहीं है|
Rhetoric उछालने वाले टाइम में कमरे में आराम से बैठ कर ज्ञान देना आसान होता है| आपके पास भर भर के लाइक्स आ जाते हैं, आपके खेमे में वाह वाही का ताता लग जाता है, फिर आपके विरोधी खेमे के लोग बैठ कर आपकी गलती निकालते हैं, और ये चलते जाता है| समस्या वही की वही पड़ी रह जाती है, उसका समाधान नहीं होता|
जब एक बच्चा पहली बार "यदि मैं प्रधानमंत्री होता" पर निबंध लिखता है, तो ये लिखता है कि मैं देश से दुःख और दर्द ख़त्म कर देता, जुर्म और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कदम उठाता, स्कूल और कॉलेज बनवाता, हॉस्पिटल और स्टेडियम खुलवाता...हालाँकि बचपन में लिखे गए "यदि मैं प्रधानमंत्री होता" वाले निबंध में अव्यभारिकता और अपरिपक्वता दिख जाती है, लेकिन साथ ही साथ उसमें सरलता और ईमानदारी भी होती है|
मैं यहाँ कोई moral high ground नहीं लेना चाहता| मैंने भी ख़ूब analysis किया है, मैंने भी कई कुंडलियां खोली हैं; मेरा भी ख़ूब analysis हुआ है, मेरी भी कई कुंडलियां खुली हैं| राजनीति के बाज़ार में कभी आप शिकारी होते हैं, तो कभी शिकार| ये खेल चलता रहता है| हालाँकि ये समझना ज़रूरी है कि इस पूरे उठा-पटक में आपने क्या पाया और क्या गंवाया|
चार पांच साल तक लिखने, पढ़ने, बात करने और हल्ला मचाने के बाद दो चीज़ें जो मुझे समझ आयी हैं वो ये है कि (a) हर किस्म की व्यक्तिगत आज़ादी बहुत महत्त्वपूर्ण है (b) किसी भी इंसान को समझने के लिए उसके जीवनकाल को समझना चाहिए, किसी एक point पर उसके विचारों का छीछालेदर करके उसपर निर्णय देना गलत होता है| अगर 16 अक्टूबर 1935 के दोपहर चार बजे चाय पीते हुए यदि गांधी ने बोल दिया कि "देसी चाय में fun नहीं आया", तो उनके उस स्टेटमेंट को बार बार दिखा कर उन्हें libtard बताना सही नहीं होगा| इससे पहले कि आप मेरा स्क्रीनशॉट दिखाएं मैं फिर से बता देता हूँ कि ये स्क्रीनशॉट वाली कई analysis मैंने भी की है, और वो उचित नहीं है|
Rhetoric उछालने वाले टाइम में कमरे में आराम से बैठ कर ज्ञान देना आसान होता है| आपके पास भर भर के लाइक्स आ जाते हैं, आपके खेमे में वाह वाही का ताता लग जाता है, फिर आपके विरोधी खेमे के लोग बैठ कर आपकी गलती निकालते हैं, और ये चलते जाता है| समस्या वही की वही पड़ी रह जाती है, उसका समाधान नहीं होता|
जब एक बच्चा पहली बार "यदि मैं प्रधानमंत्री होता" पर निबंध लिखता है, तो ये लिखता है कि मैं देश से दुःख और दर्द ख़त्म कर देता, जुर्म और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कदम उठाता, स्कूल और कॉलेज बनवाता, हॉस्पिटल और स्टेडियम खुलवाता...हालाँकि बचपन में लिखे गए "यदि मैं प्रधानमंत्री होता" वाले निबंध में अव्यभारिकता और अपरिपक्वता दिख जाती है, लेकिन साथ ही साथ उसमें सरलता और ईमानदारी भी होती है|
स्क्रीनशॉट वाले टाइम में अपने आप से ईमानदार होकर लिखना थोड़ा मुश्किल हो गया है| दुःख, दर्द, भ्रष्टाचार या जुर्म पर लिखने से पहले ये देखना ज़रूरी हो गया है कि आपका लिखा हुआ आपके ग्रुप को ठेस ना पहुंचा दे| ऐसा किया तो चार साल पहले आपने कुछ लिखा था और आज कुछ और लिख रहे हैं वाले "before" और "after" स्क्रीनशॉट दनादन छपने लगेंगे|
मुद्दों पर निजी राय देने से पहले ये देखना ज़रूरी है कि आप जिस पार्टी को अक्सर समर्थन देते हैं उसने क्या कहा है|
एक गरीब रिक्शावाला ATM के सामने लगी भीड़ में कराह रहा हो, और कोई उसे ये ज्ञान दे रहा हो कि "कश्मीर में सैनिक इतनी ठण्ड में खड़े होते हैं, तुम ATM के सामने खड़े नहीं हो सकते", तो ये मूर्खता है और ये गलत भी है| लेकिन ऐसे मूर्खों पर ऊँगली उठाने से पहले ये देख लीजिये कि कहीं वो आपके राजनीतिक आइडियोलॉजी वाला तो नहीं, अन्यथा आपको liberal, turncoat या opportunist बनते समय नहीं लगेगा|