Tuesday, April 08, 2008

या यूं कहे..

ये कोई इत्तेफाक नहीं,
पर कभी कभी,
हम,
नदी के एक किनारे से
दूसरे तक,
लम्बी छलांग लगा देते हैं ;

या यूं कहें,
उस पार जाने के लिए,
इस पार सब कुछ गवां देते हैं॥

चाँद को चाहना,
बेहद कोई गुनाह नही,
आख़िर सारी दुनिया यही करती है,
गुनाह है ये,
हम चाँद से चाहने की उम्मीदे लगा देते है,

या यूं कहे,
चांदनी बटोरने के लिए
हम सब कुछ ग़वा देते हैं...

और, इस पार
तुम्हारी कविताओं की जगह,
किसी और को पढ़ा जाए,
तुम प्यासे ही रहो,
किसी और को भरा जाए

दर्द होने पर,
रो नही सकते;
तुम नाटक के किरदार कहलाओगे,
गुस्सा करने पर, भाग नही सकते
पागल घोडा बन जाओगे॥

ये इत्तेफाक नही,
तुम्हारा झोला अब खली है
शब्दों से सजाई दुनिया,
गन्दी सी एक गाली है

या यूं कहे,
छलांग लगाने के साथ,
हम ख़ुद का मजाक बना लेते है,
अक्सर चाहते चाहते
सब कुछ गवा देते हैं..

8 comments:

Aditya said...

Its really nice... quite from n inner mirror :)

crazy devil said...

thanx :)

Anonymous said...

Sahi hai,
kuch naye mein kuch alag sa dikha,
ya yun kahe,
badiya hai.
:)

Anonymous said...

this poem is reflecting lots of thing..it depends on the reader..i think u have written all those things which we always think in our mind but never dare to say...well done!!!m very glad to read such a different and heart touching poem..keep writting!!

falcon said...

NICE1

Anonymous said...

but still the freedom to let tears flow should b ours even if the world calls it being melodramatic...
:)
just an opinion though..
nice thought ..

crazy devil said...

@girl next door-thanx :) keep reading

ritu bajpai said...

good one!

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