अपने सरगम पर इठलाती,
जी भर हंसती, चुप हो जाती।
रेत पे संवरी, नदी के तट पर,
पगली चूड़ी का स्पव्न सुना है;
मैं कलम नही, और न कोई दर्पण,
फिर भी तेरे उलझे धागों से,
मैंने अपना आकाश बुना है।
रंगोली के रंग में खिलती,
पगली चूड़ी का स्पव्न सुना है;
बातूनी इस चूड़ी से,
मैं डरता भी हूँ, लड़ता भी;
उसने कितनो को पगला बोला है,
ये तो कभी ना बतला पाऊंगा,
खनक पे भटके प्यासे प्याले,
गिन कर भी क्या कर पाऊंगा...
बड़ी बांवरी है, कागज की कश्ती,
पाकर भी इसे घबराऊंगा।
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6 comments:
रोमान्सक है
aapki पगली चूड़ी bahut hi pyaari lagi humein... kalpanaon kaa sunder bimb buma hai aapne... haan dhaage uljhe hue zaroora hain...sire jod pana thoda mushkil.....parantu sire ojod lene k baad ye rachnaa ek naya hi arth paa jaati hai...:)
i really loved d xpression coz of d kind of mixed emotions conveyed in thm...
"उसने कितनो को पगला बोला है,
ये तो कभी ना बतला पाऊंगा,
खनक पे भटके प्यासे प्याले,
गिन कर भी क्या कर पाऊंगा... "
kavi saahab aap kafi achchi kavita likhne lage hain..
rightly said: romansak
gud one yaar.....who's being personified as choori?? :)
Makes a girl fall in love :) with herself. awsome !!
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