Saturday, March 02, 2024

गुलमोहर की शाखों पर

बुलबुल, तोते झूल रहे हैं  

नीम की टहनी फुदक रही हैं 

बस्ती की आवारा गिलहरियाँ 


कुछ दिनों पहले तक 

अवसाद ही अवसाद था 


कॉलोनी के जिस पार्क में  

प्रेमिकायें छिप-छिप कर मिलती थीं 

-- अपने प्रेमियों से 

वहां अब मायूसी और सन्नाटा था

खाली पड़ी कुर्सियां 

लोगों के बैठने का इंतज़ार करती थीं  


दुकानें बंद थी 

उनके विषाद-ग्रस्त चौखट पर बैठे 

गली के कुत्ते 

अजनबियों को ताक ताक कर रोते थे

ना कोइ खाना देने आता था 

ना ही कोई उन्हें भगाता था|


मकानों की बेजान पपडियां 

दीवारों से लटकी थीं 

जैसे सब ने मान लिया था

पतझड़ में वो झड़ जाएंगे  


एक BHK कमरों में 

टंगे हुए कपड़ों के अंदर 

फटे पुराने सिकुड़े वॉलेट 

घंटे घंटे खुलते थे 

अंदर रक्खी तस्वीरों को देख देख कर 

चुपके चुपके रोते थे| 


कुछ दिनों पहले तक 

अवसाद ही अवसाद था

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