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Saturday, June 20, 2009

प्रश्न पुराना है।

प्रश्न पुराना है।

शायद,
शंख की गूंज की तरह,
हर किसी के,
नस नस में बहता होगा;

घिसता नहीं,
क्यूंकि इसकी चोट,
हर बार उतना ही घाव देती है।

मैं,
कौन, क्यूँ - मैं!

कोई समीकरण,
किसी समीकरण का हल?

एक प्रणाली में,
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए,
प्रमाणपत्र छपवाता हूँ,
दस्तावेजों के लिबास में,
लिपटकर,
अपनी नीलामी लगवाता हूँ।

गुत्थियाँ सुलझाने के प्रयास में,
गुत्थियों में लिपटे शतरंज का बिसात बिछाकर,
हर जीते हुए दाव पर,
अपनी औकात से दोगुना आवाज़ लगाता हूँ।
और,
हार जाने पार,
झूठे किस्सों का उलझा हुआ शहर बनाकर खुश हो जाता हूँ।

मेरी परिभाषा,
भीख में मांगे हुए,
और भीख में दिए गए,
रिश्तों के बिना अधूरी है।
कड़वा लगने के डर से,
मैं इस सच को भी निगल जाता हूँ।

मेरे सपनो की पतंग,
उड़ता है,
सूरज को चूमना चाहता है;
पर,
हवा के रुकते हीं,
डोर ढीली पर जाती है,
कागज के मामूली पन्ने की तरह,
बापस लौट आता हूँ।

शायद,
किसी और के स्वप्न का,
छोटा सा पात्र हूँ;
उसके नींद खुलते हीं गायब हो जाऊंगा।

Saturday, March 21, 2009

कल रात बड़ी तूफ़ानी थी

कल रात बड़ी तूफ़ानी थी,
बस सैलाबों की होली थी,
शहर का साया सोया था,
मैंने खेली आँख मिचौली थी...

गर्दिश की परवाह नही,
न अफ़्सानो की ख्वाइश थी,
हया बहा किसी दरिये में,
मैंने ख़ुद की लगायी नुमाइश थी।

सब भूलना आसान इतना होता नही है,
जख्म तो भर जाता है,
वक्त के बाज़ार में,
दाग लेकिन अपना ज़ालिम छोड़ जाता है।

कल रात बड़ी तूफ़ानी थी,
मैं गंगा तट पर,
मोक्ष मांगने खड़ा रहा,
निराकार रूप के अन्तरमन का,
अर्थ जानने किसी घाट पर पड़ा रहा।

हिमालय सत्य जानता ही होगा,
सब उससे ही तो पूछने जाते हैं;
गीता के कुछ पाठ जानकर,
मैं धनुष तानकर,
हिम खंड पर चढ़ा रहा...

कल रात बड़ी तूफ़ानी थी

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...