Monday, May 27, 2019

और जिस समय

और जिस समय 
गुलमोहर के बौराये डाल पर बैठे
कुछ मदमस्त गौरये 
बेपरवाह होकर झूल रहे थे 
एक फुनगी से दूसरी फुनगी पर

और जिस समय
किसी पिता की आँखें भर आयी थी 
जब उसके नवजात शिशु ने 
अपनी नन्ही उँगलियों से
उसकी उँगलियों को थामा था

और जिस समय
सब्ज़ पहाड़ों के आँगन में
नदियों से तराशे गए किनारों पर
फुदक रहे थे सफ़ेद ऊन से ढके मेमने 
और दौड़ रहे थे पुष्ट घोड़े

और जिस समय
अपने औलादों से कई मीलों दूर 
बंजर सरहदों पर बने टीलों में 
अगली गोली का इंतज़ार करता सैनिक 
अपने घर वालों को याद कर रहा था

और जिस समय
बाढ़ में फ़सल उजड़ने के बाद
मातम मनाते माँ बाप 
अपने बच्चों को भूखे पेट लेटाकर 
रात की लोरियाँ सुना रहे थे

और जिस समय
विरह की वेदना में 
फूट फूट कर रोता हुआ प्रेमी 
अपनी प्रेमिका को आखिरी अलविदा कह कर 
अचेत होकर गिर पड़ा था

और जिस समय
मैं और तुम उलझे थे 
दुनिया और समाज के वकवास में

उसी समय,
यही निर्दयी समय
निगल रहा था मेरा एक हिस्सा 
हमेशा हमेशा के लिए

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