तुम कभी हो
इश्क़ का कतरा,
और कभी आवारगी
तुम कभी फ़िरदौस की सूरत
और तुम कभी हो ज़िंदगी
दीवानों का क्या कोई जिस्म
कोई मज़हब नहीं होता है?
तुम कभी चांदनी को फूटपाथ समझकर सो जाते हो,
तुम कभी खुशबू बनकर
पलकों में भी खों जाते हो
दीवानों का क्या कोई घर,
कोई शहर नहीं होता है?