Thursday, March 31, 2011

उफ्फ़

तुम कभी हो
इश्क़ का कतरा,
और कभी आवारगी
तुम कभी फ़िरदौस की सूरत
और तुम कभी हो ज़िंदगी
दीवानों का क्या कोई जिस्म
कोई मज़हब नहीं होता है?

तुम कभी चांदनी को फूटपाथ समझकर सो जाते हो,
तुम कभी खुशबू बनकर 
पलकों में भी खों जाते हो
दीवानों का क्या कोई घर,
कोई शहर नहीं होता है?

2 comments:

बाबुषा said...

naheen to ! naheen hota ! :-)

Nice!

Parul kanani said...

waah!

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...