आठ साल का था
जब,
चोकलेट के लालच में,
अलमारी से मैंने अट्ठन्नी चुरायी थी;
पकड़ा ना जाऊ,
इस डर से,
हडबडाहट में घर के पीछे लगे बरगद में,
उसे मैं गाड़ आया था.
दौड़ भाग और कशमकश में,
अट्ठन्नी के साथ साथ,
बरगद ने मेरी रूह का एक टुकड़ा भी निगल लिया था, शायद
और,
ज़िस्म पर छोड़ दिया एक ख़रोच.
आज बरगद बड़ा हो गया है;
अपनी शाख से, ढक लेता है सूरज को.
सूरज घूमता तो है, लेकिन
हर पहर रात जैसी ही होती है.
जब भी नए चोकलेट खाने की कोशिश करता हूँ,
अँधेरा दबोचने को दौड़ता है
और मेरे रूह की कीमत,
उस अट्ठन्नी से सस्ती महसूस होने लगती है.
बचपन का खुरेंचा हुआ वह घाव,
आज भी इंतज़ार कर रहा है,
गर्द की परतों का;
इस बार मैं अट्ठन्नी चुराकर मलहम नहीं खरीदूंगा.
Saturday, May 01, 2010
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7 comments:
liked this one, nice poem on wrong doing and the guilt that ensues. Welcome back after a long time, had been waiting to read more frm u :)
Manmohak...ati sundar :)...isi tarah har nayi vasant mein naye phool khiate rahiye :)
पढ़ने के बाद कुछ देर ठहरा तो देते ही हो भाई !
बेहतर रचना ! आभार ।
अट्ठन्नी की कीमत तो नहीं रही वो सिक्के इकट्ठे करने वालो के संग्रह में होगी शायद और रुहों का भी कुछ पता नहीं.
Good going!
I remembered my childhood.
really beautiful!!
never thought "guilt" could be expressed so beautifully... !! good work!
btw, if possible can you help in telling us how do u post hindi-posts on blogspot... we really need halp with this ... if possible please reply to c.enginium2011@gmail.com ...thanks in advance.. :)
waiting for ur response...and ofcourse, ur next post
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