Saturday, January 23, 2010

फ़ासला

मुददतों से रौशनी ख़ामोश है,
वक़्त की दरख़्त पर,
उम्मीदों की ख़रोच का नामोनिशां कंही है नहीं।
और,
शून्य सी खड़ी है वही शीशे की दीवार;
एक तरफ़ ठण्ड में ठिठुरता रहता है चाँद,
और एक तरफ़ हुक्के के धुंए में जिंदगी मदहोश है।

तुम्हारी रोशनदानी में जब मैं झांकता हूँ,
दिखता है वही चराग़
बेचैन, इंक़लाब के जिदद में,
फड फडाता रूह मेरी ताकता है।

जब फुर्सत मिले,
तुम, तुम्हारे चाहने और जानने वाले सारे लोग
एक छत के नीचे जमा होकर,
तब तक...
हँसते रहना, बातें करना, रोते रहना, ख़ूब लड़ना,
जब तक सारी बेतुकी ख्वाइशें झुर्रिया बनकर चेहरे पर उभर न जाएँ;

फिर लौट जायेंगे सब अपनी गली,
और नयी सुबह,
बेरुखी जिंदगी से फ़ासला कम हो जाएगा।

4 comments:

Himanshu Pandey said...

इस एक लाइन से खूब प्रभावित हूँ -
"जब तक सारी बेतुकी ख्वाइशें झुर्रिया बनकर चेहरे पर उभर न जाएँ;"

रचना का आभार ।

डिम्पल मल्होत्रा said...

ठिठुरता चाँद देख रौशनी खामोश है फड फडाता चराग़ अपनी समर्था से रौशनी देने कि कोशिश करता है.

shashank said...

bahut dino se koi update nahin..
wat happened
even folkstride is also not working

Unknown said...

i really liked this poem ..

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...