प्रश्न पुराना है।
शायद,
शंख की गूंज की तरह,
हर किसी के,
नस नस में बहता होगा;
घिसता नहीं,
क्यूंकि इसकी चोट,
हर बार उतना ही घाव देती है।
मैं,
कौन, क्यूँ - मैं!
कोई समीकरण,
किसी समीकरण का हल?
एक प्रणाली में,
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए,
प्रमाणपत्र छपवाता हूँ,
दस्तावेजों के लिबास में,
लिपटकर,
अपनी नीलामी लगवाता हूँ।
गुत्थियाँ सुलझाने के प्रयास में,
गुत्थियों में लिपटे शतरंज का बिसात बिछाकर,
हर जीते हुए दाव पर,
अपनी औकात से दोगुना आवाज़ लगाता हूँ।
और,
हार जाने पार,
झूठे किस्सों का उलझा हुआ शहर बनाकर खुश हो जाता हूँ।
मेरी परिभाषा,
भीख में मांगे हुए,
और भीख में दिए गए,
रिश्तों के बिना अधूरी है।
कड़वा लगने के डर से,
मैं इस सच को भी निगल जाता हूँ।
मेरे सपनो की पतंग,
उड़ता है,
सूरज को चूमना चाहता है;
पर,
हवा के रुकते हीं,
डोर ढीली पर जाती है,
कागज के मामूली पन्ने की तरह,
बापस लौट आता हूँ।
शायद,
किसी और के स्वप्न का,
छोटा सा पात्र हूँ;
उसके नींद खुलते हीं गायब हो जाऊंगा।
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6 comments:
nice one ...
of its own , not Gulzarish
provoked me
quite good one...reminded me of title song of tamil movie anbe sivam
apart from a few gramaatical errors, the poem has turned really beautiful.... tumhare usual style se kaafi hatkar......this time u have xplained well wt u wanaa say nd u have atleast remained stuck to the same central theme til d end....
"मेरी परिभाषा,
भीख में मांगे हुए,
और भीख में दिए गए,
रिश्तों के बिना अधूरी है। "
yeh khayaal bahut sach hai so dil ko choo gayaa....
@ Yayaver - thanks
@ vartika galti sudhar li amma
bahut hi badhiya hai sir !!
khud ko janne ke har prayas me khud ko khud se dur hote dekhna kaisa lagta hai...shayad aisa hi..
beautiful
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