प्रश्न पुराना है।
शायद,
शंख की गूंज की तरह,
हर किसी के,
नस नस में बहता होगा;
घिसता नहीं,
क्यूंकि इसकी चोट,
हर बार उतना ही घाव देती है।
मैं,
कौन, क्यूँ - मैं!
कोई समीकरण,
किसी समीकरण का हल?
एक प्रणाली में,
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए,
प्रमाणपत्र छपवाता हूँ,
दस्तावेजों के लिबास में,
लिपटकर,
अपनी नीलामी लगवाता हूँ।
गुत्थियाँ सुलझाने के प्रयास में,
गुत्थियों में लिपटे शतरंज का बिसात बिछाकर,
हर जीते हुए दाव पर,
अपनी औकात से दोगुना आवाज़ लगाता हूँ।
और,
हार जाने पार,
झूठे किस्सों का उलझा हुआ शहर बनाकर खुश हो जाता हूँ।
मेरी परिभाषा,
भीख में मांगे हुए,
और भीख में दिए गए,
रिश्तों के बिना अधूरी है।
कड़वा लगने के डर से,
मैं इस सच को भी निगल जाता हूँ।
मेरे सपनो की पतंग,
उड़ता है,
सूरज को चूमना चाहता है;
पर,
हवा के रुकते हीं,
डोर ढीली पर जाती है,
कागज के मामूली पन्ने की तरह,
बापस लौट आता हूँ।
शायद,
किसी और के स्वप्न का,
छोटा सा पात्र हूँ;
उसके नींद खुलते हीं गायब हो जाऊंगा।
Saturday, June 20, 2009
Friday, June 05, 2009
तेरे किस्से भी ख़रीदे थे रे बन्दे
अंधी गलियों में हज़ारों,
प्यासे चूल्हे जलते हैं;
भूखे कुँए में सभी बेआबरु घुट कर मरते है।
इंसान की फ़ितरत बता कर,
भीख को आदत सुना कर,
तुमने उनको ठुकरा दिया था,
तुमने सब झूठला दिया था।
तेरे किस्से भी ख़रीदे थे रे बन्दे,
तेरे ही दरबार से;
हकीक़त की आंधी में जब,
असूलो का चोला,तेरा ही
चूभा था तुझे और,
अंधेरे कुँए में,
डुबकी लगाकर,
तुम,
दुनिया की महफ़िल में शामिल हुए थे।
बेच आया,
तेरे सारे किस्से,
वक्त के बाज़ार में...
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