तुम्हारे दीदार से मुक़म्मल होती थी वो कवितायेँ
जो आज कल अधूरी-अधूरी ही ख़त्म हो जाती हैं.
जो आज कल अधूरी-अधूरी ही ख़त्म हो जाती हैं.
हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो हम लड़ेंगे युद्...
1 comment:
दीदार की बेकरारी में भी कविता बन जाती है
बहुत खूब!
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