आप एक दिन अपनी गाडी लेकर सड़क पर जा रहे हैं; कुछ लोग आकर आपको ताना मारते हैं, कुछ गाली देते हैं और कुछ लोग आपके कार को तोड़ फोड़ देते हैं, बाद में सारा दोष भी आप पर ही थोप दिया जाता है; ये सबकुछ बस इसलिए क्यूंकि उन्हें लगता है कि आपकी गाडी का रंग अच्छा नहीं है| संस्कार के नाम पर अक्सर ऐसा ही बहुत कुछ थोप दिया जाता है|
एक लड़की जब छोटे कपड़ों में घर से बाहर निकलती है, और सड़क पर चलते हुए लुच्चे लफंगे उसपर कुछ भद्दी टिपण्णी कर दें या कॉलोनी में सूखे पेड़ की तरह खड़खड़ाते बुड्ढे उसको देख कर "हमारे समय में...." वाली उटपटांग बातें शुरू कर दें या दिन रात गॉसिप करने वाली आंटियां नाक-भौं सिकोड़कर उसपर ताना कस दें, तब जानते हैं सबसे ज्यादा गलती किसकी होती है? उस लड़की की, और सबसे ज्यादा नुक्सान किसे होता है? - हमारे संस्कार को| हमारा संस्कार इतना नाज़ुक है कि हर छोटी बात पर बुरा मान जाता है|
आख़िर ये संस्कार साला आता कहाँ से है? इन्हे बनाता कौन है? इसमें सही ग़लत का पैमाना कौन डालता है? समझना है तो कुछ सामान्य से प्रश्न लोगों से पूछ लीजिये और उत्तर आपको मिल जायेगा| उदाहरण के तौर पर -- लड़कियों का छोटा कपडा पहनना गलत क्यों है?
उत्तर ऐसा मिलेगा:
1. लड़की काम कपडा में घूमेगी और लड़का सब सीटी मारेगा तो अच्छा लगेगा?
2. समाज में रहना है तो कुछ नियम मानना पड़ेगा इसलिए मान लो|
3. लड़कियां हमारे घर की इज़्ज़त है, उनका ये ग़लत है|
4. तुम्हारी माँ और बहन जब छोटे कपड़ों में घूमेगी तब पता चलेगा|
5. बच्चों पर इसका क्या असर पड़ेगा|
मतलब चूकि आप अपने मोहल्ले के आवारा लड़कों और ठरकी बुङ्ढों को संभाल नहीं पाते या आपका "संस्कारी समाज" अपने समाज के मनचलों को संभाल नहीं पाता है इसलिए आप सारा बंधन लड़की पर चिपका दीजिये, उसके पंख काट दीजिये और सीना तान के कहिये कि आप बहुत संस्कारी हैं| ख़ैर, कई लोगों को तो ये पता भी नहीं होता कि ये संस्कार वाले चोचले सही हैं या गलत| पूछने पर बोलेंगे, "सदियों से ऐसा चला आ रहा है, मेरे आस-पड़ोस वाले भी यही कहते हैं, मेरे फूफा और मौसा भी इसे सही कहते हैं| समाज में रहना है तो मानना पड़ेगा| इसलिए सही है|"
कुछ लोग कहेंगे कि लड़कियां घर की इज़्ज़त हैं| मतलब लड़के इज़्ज़त नहीं है, इसलिए कच्छा-बनियान पहनकर गली में घूम सकते हैं? और क्या लड़की को घर की इज़्ज़त बनाने से पहले आपने पूछा भी था कि वो इज़्ज़त बनना चाहती हैं या नहीं| किसी को इज़्ज़त बनाकर उसकी सारी ज़िन्दगी पर अपने उम्मीदों का पहाड़ तोड़ना कैसे सही है?
एक कैटेगरी वो वाला होता है जिसे कुछ भी बोलो वो सीधे माँ और बहन पर आ जाता है| जैसे माँ और बहन घर में रखा हुआ कोई object है जिसे जिधर मन किया उधर घुमा लो| मेरी माँ या बहन को जो पहनना है, जो खाना है, जो पीना है ये उनके choice पर होना चाहिए| वो किसी के ग़ुलाम तो नहीं कि उनको क्या पहनना है और क्या नहीं ये कोई और बताये|
बच्चों पर क्या असर पड़ेगा इसका तो भगवान् मालिक है| ये वही बच्चे हैं जिन्हे शादी के एक दिन पहले तक आप सेक्स की बातें करने पर असंस्कारी मान लेते हैं, और शादी के दिन केसर में दूध डालकर पिलाते हैं और बोलते हैं कि आज ही एक नन्हा सा लल्ला दे दो|
ऐसा ही फ़्रेमवर्क हर morality वाले argument में घुसेड़ दिया जाता है| लड़की होकर छोटा कपडा पहनो तो संस्कार ख़राब, लड़की होकर ज़ोर से हंसों तो संकर ख़राब, शराब पियो तो संस्कार ख़राब, सिगरेट पियो तो संस्कार ख़राब, शादी के पहले इश्क़ करो तो संस्कार ख़राब, सेक्स करो तो संस्कार ख़राब, सेक्स की बातें करो तो संस्कार ख़राब और कभी कभी तो लड़का होकर लड़की से दोस्ती कर लो तब भी संस्कार ख़राब हो जाता है|
भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश विजय के बाद अचानक से लोगों का संस्कार उमर कर दिखने लगा है| वैसे तो असंस्कार बहुत सारे लोगों को पहले भी बुरा लगता था लेकिन अब वैसे लोग भी सफ़ाई देने लगे हैं जो पहले ऐसे प्रतिबन्ध को पहले गलत कहते थे| लड़का-लड़की साथ में घूमे तो संस्कार ख़राब हो रहा है, शराब पी ले तो ख़राब हो रहा है| जो लोग ना सरकार के हैं और ना पुलिस या क़ानून के वो सड़क पर घुमते प्रेमी प्रेमिकाओं का संस्कार ठीक कर रहे हैं| शराब बंदी पर बहस करने पर लोगों का जवाब आ रहा है कि "शराब नहीं पीओगे तो मर तो नहीं जाओगे?"
ख़ैर सेक्स की आज़ादी पर सोचना तो मूर्खता ही है| गुड़गांव के पॉश कॉलोनियों में लड़का अपने घर में महिला मित्र नहीं बुला सकता| ये इक्कीसवी सदी है और आश्चर्य ये है कि लोगों को इसमें आश्चर्य नहीं होता| उनका संस्कार उफ़न -उफ़न कर बाहर आ जाता है और वो किसी के freedom को कुचलना समाज के संस्कार की उन्नति समझते हैं|
क्या समाज में संस्कार का मतलब individuality का गला घोंटकर सब को एक नियम पर ढालना होता है? इंसान बगीचा में लगा घास तो नहीं है ना कि कैंची लिया और सब को काट-छांट के एक जैसा बना दिया| सबकी अपनी ज़िन्दगी है, वो भी मात्रा सत्तर-अस्सी साल की| उसको जीने के लिए भी दूसरों का नियम-क़ायदा मान लो, बस इसलिए क्यूंकि दूसरों को अच्छा लगेगा? इतने संस्कार का अचार डालोगे क्या?
एक लड़की जब छोटे कपड़ों में घर से बाहर निकलती है, और सड़क पर चलते हुए लुच्चे लफंगे उसपर कुछ भद्दी टिपण्णी कर दें या कॉलोनी में सूखे पेड़ की तरह खड़खड़ाते बुड्ढे उसको देख कर "हमारे समय में...." वाली उटपटांग बातें शुरू कर दें या दिन रात गॉसिप करने वाली आंटियां नाक-भौं सिकोड़कर उसपर ताना कस दें, तब जानते हैं सबसे ज्यादा गलती किसकी होती है? उस लड़की की, और सबसे ज्यादा नुक्सान किसे होता है? - हमारे संस्कार को| हमारा संस्कार इतना नाज़ुक है कि हर छोटी बात पर बुरा मान जाता है|
आख़िर ये संस्कार साला आता कहाँ से है? इन्हे बनाता कौन है? इसमें सही ग़लत का पैमाना कौन डालता है? समझना है तो कुछ सामान्य से प्रश्न लोगों से पूछ लीजिये और उत्तर आपको मिल जायेगा| उदाहरण के तौर पर -- लड़कियों का छोटा कपडा पहनना गलत क्यों है?
उत्तर ऐसा मिलेगा:
1. लड़की काम कपडा में घूमेगी और लड़का सब सीटी मारेगा तो अच्छा लगेगा?
2. समाज में रहना है तो कुछ नियम मानना पड़ेगा इसलिए मान लो|
3. लड़कियां हमारे घर की इज़्ज़त है, उनका ये ग़लत है|
4. तुम्हारी माँ और बहन जब छोटे कपड़ों में घूमेगी तब पता चलेगा|
5. बच्चों पर इसका क्या असर पड़ेगा|
मतलब चूकि आप अपने मोहल्ले के आवारा लड़कों और ठरकी बुङ्ढों को संभाल नहीं पाते या आपका "संस्कारी समाज" अपने समाज के मनचलों को संभाल नहीं पाता है इसलिए आप सारा बंधन लड़की पर चिपका दीजिये, उसके पंख काट दीजिये और सीना तान के कहिये कि आप बहुत संस्कारी हैं| ख़ैर, कई लोगों को तो ये पता भी नहीं होता कि ये संस्कार वाले चोचले सही हैं या गलत| पूछने पर बोलेंगे, "सदियों से ऐसा चला आ रहा है, मेरे आस-पड़ोस वाले भी यही कहते हैं, मेरे फूफा और मौसा भी इसे सही कहते हैं| समाज में रहना है तो मानना पड़ेगा| इसलिए सही है|"
कुछ लोग कहेंगे कि लड़कियां घर की इज़्ज़त हैं| मतलब लड़के इज़्ज़त नहीं है, इसलिए कच्छा-बनियान पहनकर गली में घूम सकते हैं? और क्या लड़की को घर की इज़्ज़त बनाने से पहले आपने पूछा भी था कि वो इज़्ज़त बनना चाहती हैं या नहीं| किसी को इज़्ज़त बनाकर उसकी सारी ज़िन्दगी पर अपने उम्मीदों का पहाड़ तोड़ना कैसे सही है?
एक कैटेगरी वो वाला होता है जिसे कुछ भी बोलो वो सीधे माँ और बहन पर आ जाता है| जैसे माँ और बहन घर में रखा हुआ कोई object है जिसे जिधर मन किया उधर घुमा लो| मेरी माँ या बहन को जो पहनना है, जो खाना है, जो पीना है ये उनके choice पर होना चाहिए| वो किसी के ग़ुलाम तो नहीं कि उनको क्या पहनना है और क्या नहीं ये कोई और बताये|
बच्चों पर क्या असर पड़ेगा इसका तो भगवान् मालिक है| ये वही बच्चे हैं जिन्हे शादी के एक दिन पहले तक आप सेक्स की बातें करने पर असंस्कारी मान लेते हैं, और शादी के दिन केसर में दूध डालकर पिलाते हैं और बोलते हैं कि आज ही एक नन्हा सा लल्ला दे दो|
ऐसा ही फ़्रेमवर्क हर morality वाले argument में घुसेड़ दिया जाता है| लड़की होकर छोटा कपडा पहनो तो संस्कार ख़राब, लड़की होकर ज़ोर से हंसों तो संकर ख़राब, शराब पियो तो संस्कार ख़राब, सिगरेट पियो तो संस्कार ख़राब, शादी के पहले इश्क़ करो तो संस्कार ख़राब, सेक्स करो तो संस्कार ख़राब, सेक्स की बातें करो तो संस्कार ख़राब और कभी कभी तो लड़का होकर लड़की से दोस्ती कर लो तब भी संस्कार ख़राब हो जाता है|
भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश विजय के बाद अचानक से लोगों का संस्कार उमर कर दिखने लगा है| वैसे तो असंस्कार बहुत सारे लोगों को पहले भी बुरा लगता था लेकिन अब वैसे लोग भी सफ़ाई देने लगे हैं जो पहले ऐसे प्रतिबन्ध को पहले गलत कहते थे| लड़का-लड़की साथ में घूमे तो संस्कार ख़राब हो रहा है, शराब पी ले तो ख़राब हो रहा है| जो लोग ना सरकार के हैं और ना पुलिस या क़ानून के वो सड़क पर घुमते प्रेमी प्रेमिकाओं का संस्कार ठीक कर रहे हैं| शराब बंदी पर बहस करने पर लोगों का जवाब आ रहा है कि "शराब नहीं पीओगे तो मर तो नहीं जाओगे?"
ख़ैर सेक्स की आज़ादी पर सोचना तो मूर्खता ही है| गुड़गांव के पॉश कॉलोनियों में लड़का अपने घर में महिला मित्र नहीं बुला सकता| ये इक्कीसवी सदी है और आश्चर्य ये है कि लोगों को इसमें आश्चर्य नहीं होता| उनका संस्कार उफ़न -उफ़न कर बाहर आ जाता है और वो किसी के freedom को कुचलना समाज के संस्कार की उन्नति समझते हैं|
क्या समाज में संस्कार का मतलब individuality का गला घोंटकर सब को एक नियम पर ढालना होता है? इंसान बगीचा में लगा घास तो नहीं है ना कि कैंची लिया और सब को काट-छांट के एक जैसा बना दिया| सबकी अपनी ज़िन्दगी है, वो भी मात्रा सत्तर-अस्सी साल की| उसको जीने के लिए भी दूसरों का नियम-क़ायदा मान लो, बस इसलिए क्यूंकि दूसरों को अच्छा लगेगा? इतने संस्कार का अचार डालोगे क्या?
1 comment:
लकीरों की फकीरी कभी जायेगी नहीं ।
Post a Comment