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Wednesday, April 20, 2011
Saturday, April 16, 2011
समाज
अखब़ार का एक टुकड़ा
बाहर से जला हुआ,
और राख़ वाली परिधि के दरमयां
सिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.
हुमाद की वही खुशबू,
जिसका कोई आकर नहीं,
जिसकी कोई दिशा नहीं;
ठंडी आवाज़ में बजती घंटियों सा चमकता है,
दीया और पुष्प जैसा नदियों में बिख़र जाता है.
हम घोसला बनाते हैं
जिसपर,
कभी चाँद लटकता है, कभी शराब की बोतलें
कभी वहां चूजों के मासूम सवाल गूंजते हैं,
और कभी दरिंदगी और लालच भरी चीखें.
दीवार के एक कोने पर चढ़कर,
दूसरे कोने पर आहटों का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं सभी,
वज़ह और बहाने अलग हो शायद.
मैं भी समाज हूँ.
Friday, April 08, 2011
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हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो हम लड़ेंगे युद्...
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