अखब़ार का एक टुकड़ा
बाहर से जला हुआ,
और राख़ वाली परिधि के दरमयां
सिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.
हुमाद की वही खुशबू,
जिसका कोई आकर नहीं,
जिसकी कोई दिशा नहीं;
ठंडी आवाज़ में बजती घंटियों सा चमकता है,
दीया और पुष्प जैसा नदियों में बिख़र जाता है.
हम घोसला बनाते हैं
जिसपर,
कभी चाँद लटकता है, कभी शराब की बोतलें
कभी वहां चूजों के मासूम सवाल गूंजते हैं,
और कभी दरिंदगी और लालच भरी चीखें.
दीवार के एक कोने पर चढ़कर,
दूसरे कोने पर आहटों का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं सभी,
वज़ह और बहाने अलग हो शायद.
मैं भी समाज हूँ.
5 comments:
अखब़ार का एक टुकड़ाबाहर से जला हुआ,और राख़ वाली परिधि के दरमयांसिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.
आपकी दूसरी बेस्ट कविता है...पहली अट्ठनी वाली लगी थी...
:) thanks
mere sar ke upar se nikal gayi ....
:( kuch bhi connnect nahin kar paaye to kuch chamkaa nahin....
राख़ वाली परिधि के दरमयांसिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.
..tham jane ke liye itna hi bahut hai!
Flaws and insecurities we all have. Nice spin you gave it here.
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