सुबह छिटक कर,
बिस्तर में आ जाता है
सूरज का कुछ टुकड़ा;
अंगराईयां मेरी- मुट्ठी में उन्हें भर लेती हैं.
'बालकनी' में
जब भी मिलते हैं आपस में - एक प्याली चाय की चुस्की
और, मिट्टी की सौंधी सी खुशबू;
मैं पंख लगाकर,
हौले हौले नन्हे पत्तों सा बह लेता हूँ.
थोड़ा थोड़ा चाँद चुराकर,
लिफाफों को रंगते आये हैं - 'तुम और मैं'
लेकिन,
पतझड़ की किसी सांझ को जब,
लालटेन नहीं जलता है, और
चाहतों की चीख़ नाकाम होती है
हम, राख़ के जैसे बिख़र जाते हैं.
सुलगती जाती है बेचारी ज़िंदगी,
और,
किसी बेनाम चौराहे पर बदनाम होती है.
चलो,
ओढ़कर इसकी ख़ुशबू, ज़िंदगी से थोड़ा इश्क़ करते हैं,
ज़िंदगी के नाम पर मरने से पहले, ज़िंदगी जी लेते है.
4 comments:
अति सुन्दर अभिव्यक्ति....
bahut khoob,
Reminded me of Swanand Kirkire's Shahar.
नन्हें पत्तों सा बहना...चाँद चुराना :)
in one word-गुलज़ाराना
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