हर रात,
तुम्हारी आहटों का इंतज़ार रहता है;
सोचता हूँ,
मेरी पलकें
थक कर,
जब अलसाई बाती की तरह बुझ जायेंगी,
तुम,
चुपके से आकर,
मेरे शब्दों को जूठा कर दोगी।
और सुबह,
धूप की छन छन
गुदगुदाकर,
जब मुझे चिढ़ाने को बेताब हो जाएँ;
मैं टूटे आवारा पत्तों की तरह,
फ़ुर्सत से,
मदहोशी में हौले हौले बहता हुआ,
सुबह से शाम गुज़र दूँ;
और,
मेरे नज्मों की खुशबू,
वादियों में सहमे बादलों की तरह,
आहिस्ता आहिस्ता फैलने लगे...
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4 comments:
Achcha likha hai .. aasha hai ki ye "intezaar" jaldi hi khatam ho .. :)
naa yeh teri kahani thi
naa yeh meri thi
par naa jaane kyon hume
bus kahane se dillagi ho gaye
sabse pehle paudi ko ..sadar pranam...comment dene ka kast kiya woh bhi is tarah..
aur bahi pandu ...nice little poem...ramdhari singh dinkar banne ki kabiliyat hai aap main....
lekin(courtesy: Laxmi)....
धूप की छन छन...sahi hai kya...
now dont say that u used your poetic licence
mujhe poori kavita ek toote aawara patte si haole haole behti hui si nazar aayi.........
mujhe dhoop ki chan chan bhi acchi lagi... agar dekhein to dhoop bhi dheere dheere chalti hi hai...ek ek kadam aage rakhti hai.... so use ek noopur pehne nayikaa ke taur pe dekhnaa koi galat nahin...
par yeh nayikaa hai kaun janaab jiske jhootha karne se tumhare shabd nazm bann unn aahista ahistaa har oar phail rahe hain...
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