उस रात,
गोद में उठाकर,
अपने बच्चे से अटपटी बातें करती माँ की आँखों में,
शायद,
मैंने वैसा ही कुछ देखा था,
जैसा आज,
चाय की चुस्कियों के संग,
अपने पुरानी यादों पर खिलखिलाते,
और,
बचे खुचे दांतों के बीच,
मोर की तरह फडफडाते
उस बुजुर्ग के होठो में देखा होगा।
हर बार,
निस्वार्थ बहते
इन झरनों को,
मैं अपनी कल्पनाओ में कैद करना चाहता हूँ;
और हर बार,
ऐसा करते ही,
मैं थोड़ा और स्वार्थी बन जाता हूँ।
Saturday, August 29, 2009
Friday, August 28, 2009
इंतज़ार
हर रात,
तुम्हारी आहटों का इंतज़ार रहता है;
सोचता हूँ,
मेरी पलकें
थक कर,
जब अलसाई बाती की तरह बुझ जायेंगी,
तुम,
चुपके से आकर,
मेरे शब्दों को जूठा कर दोगी।
और सुबह,
धूप की छन छन
गुदगुदाकर,
जब मुझे चिढ़ाने को बेताब हो जाएँ;
मैं टूटे आवारा पत्तों की तरह,
फ़ुर्सत से,
मदहोशी में हौले हौले बहता हुआ,
सुबह से शाम गुज़र दूँ;
और,
मेरे नज्मों की खुशबू,
वादियों में सहमे बादलों की तरह,
आहिस्ता आहिस्ता फैलने लगे...
तुम्हारी आहटों का इंतज़ार रहता है;
सोचता हूँ,
मेरी पलकें
थक कर,
जब अलसाई बाती की तरह बुझ जायेंगी,
तुम,
चुपके से आकर,
मेरे शब्दों को जूठा कर दोगी।
और सुबह,
धूप की छन छन
गुदगुदाकर,
जब मुझे चिढ़ाने को बेताब हो जाएँ;
मैं टूटे आवारा पत्तों की तरह,
फ़ुर्सत से,
मदहोशी में हौले हौले बहता हुआ,
सुबह से शाम गुज़र दूँ;
और,
मेरे नज्मों की खुशबू,
वादियों में सहमे बादलों की तरह,
आहिस्ता आहिस्ता फैलने लगे...
Saturday, August 08, 2009
इस रात वक्त क्यूँ थम गया है?
बूझते चिरागों की बेबसी में,
ख्वाइश का साया खोने लगा है।
किताबों की दुनिया का बेखौफ़ ज़ज्बा,
बूझी राख़ बन कर सोने लगा है।
अंधेरे में लिपटे आइनों की हँसी से,
यादों की तस्वीर जलने लगी है,
मैखाने में छिप के रोने गया था,
शहर में मातम भी बिकने लगा है।
इस रात वक्त क्यूँ थम गया है?
सुबह तक मैं भी ढल पडूंगा,
बासी रोटी निगलकर भूख मर गई अगर,
सुनसान गलियों में चल पडूंगा।
ख्वाइश का साया खोने लगा है।
किताबों की दुनिया का बेखौफ़ ज़ज्बा,
बूझी राख़ बन कर सोने लगा है।
अंधेरे में लिपटे आइनों की हँसी से,
यादों की तस्वीर जलने लगी है,
मैखाने में छिप के रोने गया था,
शहर में मातम भी बिकने लगा है।
इस रात वक्त क्यूँ थम गया है?
सुबह तक मैं भी ढल पडूंगा,
बासी रोटी निगलकर भूख मर गई अगर,
सुनसान गलियों में चल पडूंगा।
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