सांझ को किसी मोड़ से,
सौंधी सी खुशबू आने लगी,
जिंदगी वहाँ थम गई,
घबराने लगी.. चुप हुई...मुस्कुराकर शरमाने लगी।
क्या पता,
उस शाम ढलती मोड़ पर
क्यूं चौक सा गया था मैं,
क्यूँ पता,
उस ओस से टकराकर,
खामोश सा हो गया था मैं...
लडखडाती राहें पगली,
मोड़ पर थम जाती हैं,
अनकहे इंतज़ार की ख्वाइश में गुम जाती हैं।
बिंदास था, कुछ लम्हों के अल्फास में,
मैं खो गया।
उस सुस्त चलती मोड़ पर,
धीमे आहट से कुछ हो गया...
क्या पता,
उस शाम ढलती मोड़ पर
क्यूँ चौक सा गया था मैं,
क्यूँ पता,
उस ओस से टकराकर,
खामोश सा हो गया था मैं...
3 comments:
wah mere dost..mere kavi...chaa gayo....aise hi likhat rahi to bihar ko ek din tumpe naaj hoga..
good going!!!
hmmm... acchi hai... aur acchi likh sakte ho tum ye bhi humein pata hai.... :)
i know that u know the comment!if not then ping!
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