Saturday, March 21, 2009
हर शाम, एक गुमनाम चिडिया
हर शाम,
एक गुमनाम चिड़िया,
किसी नए फ़लक तक उड़ान के पश्चात्, घोसले में लौटती थी,
नन्ही उँगलियों से टाईपराइटर पर फुदक कर,
कुछ नए शब्द खोजती थी।
मैंने पढ़ा, सुना और तस्वीरों में देखा है,
ये दुनिया,
जिंदगी की तरह गोल, बिल्कुल गोल दिखती है;
तुम बहुत तेज़ हा धीरे चलोगे,
वापस वहीँ पहुँच जाऊगे।
शब्दों के मेले से चिड़िया,
नए रिश्ते, नई स्याही लाती थी,
नन्ही उँगलियों में सपने दबाकर,
टाईपराइटर पर फुदकती,
अपने आँगन में, स्नेह का चादर बिछाती थी।
ये बादल भी, कितने पागल होते हैं;
मांग कर और छीन कर, कतरा कतरा पानी का,
दूर देश से लाते हैं;
प्यासी धरती को देख तड़पता,
पल भर में बह जाते हैं।
टाईपराइटर के नए अक्षर,
नई स्याही, नया पेपर
नए बहने, नए विचार,
नई रचना पर वही आधार...
हर शाम एक गुमनाम चिड़िया,
वही धुन लिख जाती थी,
फुदक कर फिर टहनियों पर,
प्रियतम को सुनती थी।
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2 comments:
Nice one on life :)
hmmm…metaphors से तस्वीर के खाके खींचना सदैव ही आपकी खासियत रही है… हर खाका अलग … और फिर भी जब सबको साथ में रख दो … तो विचारों का संपूर्ण आकाश नज़र आ जाए ….
बहुत xperimental style है …पर मुझे पसंद हैं ऐसी रचनाएँ जो आपकी सोच को अपना विस्तार ढूँढने का विकल्प देती हैं…
ज़िन्दगी के कई सारे कठोरतम सत्य उजागर कर गए हैं आप बातों बातों में…. जैसे …..”तुम बहुत तेज़ या धीरे चलोगे,
वापस वहीँ पहुँच जाओगे |”..
और भी कई सारे hain…हर stanza का अंत एक सत्य से है जिसे हम सब पहचानते तो हैं , पर स्वीकार करने से कतराते hain, क्यूंकि वो सुंदर और सुकून देने वाला नहीं ….
sunder rachnaaa....
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