जब मेरे घुटने तक हीं आ पाती थी,
और आलिम, फ़ाज़िल, बुद्धिजीवियों की तालिमें
बस्ते में रह जाती थीं,
मैं तेज़ भाग कर चाँद चूमना चाहता था.
अब,
मेरी जिदद जब चाँद से हटकर,
रोटी पर थम आती है;
और अँगीठी पर हाथ सेक कर,
नींद मुझे आ जाती है;
तुम क्यूँ मेरी रोटी को नोंचने,
तुम क्यूँ मेरी रोटी को नोंचने,
मेरे गलिआरे आ जाते हो?
कभी मज़हब, कभी जाति बताकर,
कभी मज़हब, कभी जाति बताकर,
मुझको ठगते जाते हो.
वैसे भी,
हर नीलामी में,
मैं अपना वज़ूद बेचने जाता हूँ,
कुछ किस्से अपने कहता, कुछ औरों से सुन आता हूँ.
नीलामी के सिक्के रख लो
रोटी मुझको खाने दो,
आज बहुत मैं भूखा हूँ.
वैसे भी,
हर नीलामी में,
मैं अपना वज़ूद बेचने जाता हूँ,
कुछ किस्से अपने कहता, कुछ औरों से सुन आता हूँ.
नीलामी के सिक्के रख लो
रोटी मुझको खाने दो,
आज बहुत मैं भूखा हूँ.
6 comments:
कहानी सिर्फ़ आप की ही नही बल्कि हम सब की है...जिन्हे चाँद का ख्वाब दिखा कर हाथ की रोटी छीन ली जाती है..सोचता हूँ कि कभी मै भी समझदार बनूँगा.आलिम, फ़ाज़िल, बुद्धिजीवियों की ज़द से दूर निकल पाऊँगा..मगर फिर एक सैलाब आता है..और आँखें देखना बंद कर देती हैं..खैर..
बहुत जरूरी और सामयिक मैसेज देती है कविता...
चाँद छू लेने की जिद्द कब रोटी की सूरत ले लेती है...नाज़ुक सी ख्वाहिशे ज़िन्दगी की जदोजहद में गुम हो जाती है...सारी तालीमें धरी की धरी रह जाती है..
beautifully captured. jealous.
fully agree with sushant..ultimate !
wah. lajawab.
woooowwww.I am speechless. this one is 1 of the best...
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