Sunday, March 01, 2009

एहसास के टुकड़े

वक्त ख़ुद बेवक्त
हमारे लिए,
उपहार में, सूखी टहनी छोड़ जाता है;
एक झटके में जाने,
कितने रस्ते, कितने रिश्ते मोड़ जाता है...


लोग घाव से बहते अपने लहू से,
दर्द को कभी सींचते है,
या हरे चादर में छिपाकर,
हंसके ख़ुद को नोचते है...

इंसान को छोटी चीज़ें खीचने का कीडा होता है,
टहनियों को वृक्ष, और वृक्ष को अंतरिक्ष बनाता है,
हर बार अपने हाथों में किल ठोकता है;
ख़ुद को खुश रखने के लिए,
रह रह कर अपना दर्द सुनाता है।


संघर्ष की पोटली, herosim का एहसास,
वक्त की टहनियां,
झोले भर बकवास..

3 comments:

Vikash said...

"संघर्ष की पोटली, herosim का एहसास,
वक्त की टहनियां,
झोले भर बकवास.."
Very nice.

But,
"असह्य पीड़ा होता है.."
This is not expected from you. Peeda 'hotI' hai.

वर्तिका said...

aakhiri panktiyaan bahtu sashakt hain...had d entire peom been in d same format...i mean chote chote kuch phrases se bani hui hoti...aur aise hi rhyming mein hoti to aur bhi prabhaavshali hoti...abhi kya lagta hai ki baaaki ki saari panktiyaan ek rachnaa ka part hain ...aur aakhiri ki doosri kaa....

par shabdon kaa jo collage banta ahi naa dimaag mein vo bahtu khoobsoorat ahi... vicharon ki jis uttejnaa se likha gaya hai, vo dikh rha hai kaivta mein...

crazy devil said...

@ vikas

haan change kar dia :)

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