Wednesday, February 04, 2009

परिचित अजनबी

ख्वाइशें फिर से मचलकर,
वक़्त से लड़ने लगी...
क्यूँ अक्स अपना तुझमे देखा?
मुझसे पूछा करने लगी...

अजनबी तुम आइना नही,
फिर परिचय अपना कैसा है?
आइना हंस पड़ा फिर,
शायद ...कोई मेरे जैसा है।

वक़्त कुछ पल,
मेरी मुट्ठी में थम जा,
मै अनाडी..पर तुझे तो समझ है,
लुक्का छिपी अजनबी से,
थोड़ा अनूठा थोड़ा सहज है...



1 comment:

वर्तिका said...

mujhe iss kavita ki sehejta bhaa gayi..

"...शायद ...कोई मेरे जैसा है!"
koi aaina naa hokar bhi aapka aaina ho ye sabse bahut khoobsoorat ehsaas hota hai... kyunki aapka sachaa aks aap aksar chupaakar rakhte hain aur yadi koi aisa hai jisse aisa nahin karnaa pade to ye awashya hi ek apne aap mein khoobsoorat baat hai...

aur wo waqt ko rukne k liye kehte hue jo tumne use maskaa maara hai naa ..:p ki vo samajhdaar hai isiliye ruk jaaye...i loved dat..:)

overall a simple and beautiful creation :)

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