तुलसी का नावोदीत डाल था,
बरगद बगल में विशाल था।
बरगद अनंत से खड़ा था,
देवत्व में पलकर बढ़ा था;
सिन्दूरी रंग और धागों में लीपटा,
ब्रम्ह रूप में पड़ा था॥
कई असह्य मौसम झेलकर,
निर्दयी विनाशको संग खेलकर,
तुलसी ने मुश्किल से अपना अस्तित्त्व बनाया था,
छोटे भूमि के टुकड़े पर,
बस पांव टिकाया था ॥
झुंड पूजती जो बरगद को,
उसमे कुछ तुलसी भी पूजते ,
असंख्य दीये बरगद पर चढ़ते ,
नए कुछ दीये तुलसी पर बुझते॥
अकस्मात् बरगद का तना एक,
तुलसी पर है आ गिरता,
असह्य बोझ के झटके से,
तुलसी खो देता है स्थिरता॥
गर्जन करता बरगद,
तुलसी को समझाता है,
सागर निगले नदी धारा को,
शेर, हिरण को खाता है;
बड़ी मछ्ली छोटी को खाती,
आंधी में बुझ जाती बाती,
मेरे इस अखंड रूप के सामने,
खड़ा कैसे था तू साथी?
अन्तिम सांस और तृप्त प्यास में,
तुलसी मन्द सा हँसता है,
बरगद के अस्तित्त्व के भय को,
चिर अनन्त से समझता है॥
अस्तित्त्व कि चाहत सर्प को,
डसने को मजबूर करती है,
छत्ते में बैठी रानी मधु मक्खी को,
सबसे दूर करती है॥
तुलसी बरगद को अन्तिम शब्दों में,
ग्यान नही समझाता है,
ना ही बरगद के महानता के,
गीत कोई गाता है॥
" मेरे जैसे अनेक शाखाओं को,
तुमने राख बनाया है,
झूटी शान के परचम गाड़े;
गीत स्वयम का गाया है॥
परंतु डर तुम्हे हर बार,
खोखला कर जाती है,
बंधनो में जकड़कर शायद,
मिलती तुम्हे हर ख्याति है॥
मैं तो हूँ बस निमित मात्र,
छोटे प्यास का छोटा पात्र
प्यास तुम्हारी बढती रहती,
तड़प तड़प तुम जीते हो,
अनंत रूप कर के धारण,
रक्त अपना ही पीते हो............
बरगद बगल में विशाल था।
बरगद अनंत से खड़ा था,
देवत्व में पलकर बढ़ा था;
सिन्दूरी रंग और धागों में लीपटा,
ब्रम्ह रूप में पड़ा था॥
कई असह्य मौसम झेलकर,
निर्दयी विनाशको संग खेलकर,
तुलसी ने मुश्किल से अपना अस्तित्त्व बनाया था,
छोटे भूमि के टुकड़े पर,
बस पांव टिकाया था ॥
झुंड पूजती जो बरगद को,
उसमे कुछ तुलसी भी पूजते ,
असंख्य दीये बरगद पर चढ़ते ,
नए कुछ दीये तुलसी पर बुझते॥
अकस्मात् बरगद का तना एक,
तुलसी पर है आ गिरता,
असह्य बोझ के झटके से,
तुलसी खो देता है स्थिरता॥
गर्जन करता बरगद,
तुलसी को समझाता है,
सागर निगले नदी धारा को,
शेर, हिरण को खाता है;
बड़ी मछ्ली छोटी को खाती,
आंधी में बुझ जाती बाती,
मेरे इस अखंड रूप के सामने,
खड़ा कैसे था तू साथी?
अन्तिम सांस और तृप्त प्यास में,
तुलसी मन्द सा हँसता है,
बरगद के अस्तित्त्व के भय को,
चिर अनन्त से समझता है॥
अस्तित्त्व कि चाहत सर्प को,
डसने को मजबूर करती है,
छत्ते में बैठी रानी मधु मक्खी को,
सबसे दूर करती है॥
तुलसी बरगद को अन्तिम शब्दों में,
ग्यान नही समझाता है,
ना ही बरगद के महानता के,
गीत कोई गाता है॥
" मेरे जैसे अनेक शाखाओं को,
तुमने राख बनाया है,
झूटी शान के परचम गाड़े;
गीत स्वयम का गाया है॥
परंतु डर तुम्हे हर बार,
खोखला कर जाती है,
बंधनो में जकड़कर शायद,
मिलती तुम्हे हर ख्याति है॥
मैं तो हूँ बस निमित मात्र,
छोटे प्यास का छोटा पात्र
प्यास तुम्हारी बढती रहती,
तड़प तड़प तुम जीते हो,
अनंत रूप कर के धारण,
रक्त अपना ही पीते हो............