Saturday, August 29, 2009

स्वार्थी

उस रात,
गोद में उठाकर,
अपने बच्चे से अटपटी बातें करती माँ की आँखों में,
शायद,
मैंने वैसा ही कुछ देखा था,
जैसा आज,
चाय की चुस्कियों के संग,
अपने पुरानी यादों पर खिलखिलाते,
और,
बचे खुचे दांतों के बीच,
मोर की तरह फडफडाते
उस बुजुर्ग के होठो में देखा होगा।

हर बार,
निस्वार्थ बहते
इन झरनों को,
मैं अपनी कल्पनाओ में कैद करना चाहता हूँ;
और हर बार,
ऐसा करते ही,
मैं थोड़ा और स्वार्थी बन जाता हूँ।

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...