Monday, September 17, 2012

नक्काशियां


कुछ बिलियन साल पहले
राख़ की आंधियां
आवारापन में मशरूफ़ अकेले घूमती होंगी
चाँद और सूरज के इर्द गिर्द.

पानी ने अपने स्पर्श से इसलिए शायद
पत्थरों पर
जिंदगी की नक्काशियां सोची होंगी

पत्थरों को खुरेद खुरेद कर
हमने घर बनाया
खंडहरों में ख़ुदा खोजा
ख़याल खोजा
खज़ाना खोजा  
जंगल और शहर बनाया

पठारों को तराशते तराशते
पानी तो विलीन हो गया
पर, हम ख़ुद पत्थर बन गए हैं

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...