Saturday, December 10, 2011

Dedicated to Om Darbadar

पता नहीं,
कुछ उलझे ख़याल हैं
चील की तरह पीछा करते हैं, नोचते रहते हैं - हर पहर
मैं भागना चाहता हूँ जब भी इनसे,
मिल जाते हैं कुछ और भी "Om - Darbadar"

धुंए का छल्ला फैलता है - नज़रों के सामने.
मैं खुली आँखों से भीड़ के बेतुकेपन और धुंए के 'chaos' में  फ़र्क महसूस नहीं कर पाता;
और आँखें जब बंद रहती हैं,
तब पांव की उँगलियाँ
छल्लों को देर तक घूरते रहती हैं.
'Flatfoot' हूँ ना...बहुत सारा बोझ नहीं उठा सकता.

परतें अच्छी होती हैं "शायद"
वरना
हर नंगी चीज़ आपस में रगड़ने को उत्साहित रहती हैं.
चाहे वह आत्मा का विचार हो, चाहे शरीर का विचार हो
या आत्मा, शरीर और उनके 'Physical Existence' का व्यापार.

- "पेट, इज्ज़त, अधिकार, स्वतंत्रता, मौत...."
ज़िन्दगी के बहुत सारे ऐसे पहलू समझाए गए हैं बचपन से
हर ऐसी सच्चाई का वज़ूद,
एक ख़बर से ज्यादा कुछ भी नहीं होता

कहीं से कभी विचारों का एक बुलबुला उठता है
कुछ दिन तक बहुत सारे वैसे ही बुलबुले दिखते हैं
फिर एक मौलिक प्रश्न और चिर अनंत का डर मेरे 'Flatfoot' पर भारी पड़ने लगता है
 - कहीं ये बुलबुले 'vaporize' होकर कल की सुबह ना ढक दें

तुम्हारा भी एक शहर है, मेरा भी एक शहर
मैं भागना चाहता हूँ जब भी इनसे,
मिल जाते हैं कुछ और भी "Om - Darbadar"

Wednesday, November 30, 2011

College Days

वक़्त कितने भी ठिकाने ले
"क़ल्ब" अब तक College में भटकता रहता है 
उम्र नयी शौक, नए मिजाज़ से खेल ले
ज़ेहन में आज भी मेरे लेकिन, 
उन्ही ख्यालों का ज़िक्र अटकता रहता है 


शहर बदल गया है, 
तारीख़ भी लुढ़कती हुई काफ़ी आगे बढ़ चुकी है
ज़िन्दगी  ने अपने तौर तरीके बदल लिए हैं
और एक हम हैं 
Engineering College के माहौल से निकल नहीं पातें
आलिम कहता है, दुनिया के दस्तूर में ढल जाओ 
और हम इन ख्यालों को निगल नहीं पातें 

आवाम को मेरे बेतुके ख्यालों का फ़िक्र खटकता रहता है
ज़ेहन में आज भी मेरे लेकिन, 
उन्ही ख्यालों का ज़िक्र अटकता रहता है 


 

Saturday, November 26, 2011

26/11

हमारे किस्सों का, हमारे मनोरंजन का
आकार जो इतना बदल गया है 

Facebook की दीवारों पर
श्रद्धांजलि और क्रांति की बातें लौट आयी हैं
हमारा गुस्सा, आग की लहरों सा फ़िर फैलेगा
हम like करेंगे, arguments लिखेंगे
फ़िर अगली ख़बर की भूख़ में facebook पर वापस चल पड़ेंगे

आग लगती है,
ख़ून की स्याहियों में डुबोकर ख़बर का इक चेहरा 
बाज़ार में पड़ोसा जाता है.
संवेदनाओं की अगरबत्तियां
हिन्दुस्तान के कूचे कूचे में जलती हैं
ख़बर की कब्र अगले साल तक फ़िर महफूज़ रहती है

असमर्थता यह नहीं कि हम कुछ कर नहीं सकतें 
असमर्थता यह है कि,
हमें मालूम नहीं हम कुछ करना ही क्यूँ चाहते हैं 

हमारे किस्सों का, हमारे मनोरंजन का
आकार जो इतना बदल गया है 

Monday, November 21, 2011

Why this kolaveri kolaveri kolaveri di

When mind is without Fear
and choices are for free..
Then why this kolaveri kolaveri kolaveri di

कोई States से अनजान हैं, कोई status में परेशान है
कल तक,
भ्रष्टाचार पर मिटने वाला Facebook Generation,
आज Sunny Leon पर क़ुर्बान है

वही मुल्क़, जो चाँद पड़ोसने की ख्वाईशें रखता था
लोग कहते हैं - आज culturally developed हिन्दुस्तान है

किसी के चाय की चुस्कियों की क़ीमत,
प्रदेश के चार टुकड़ों पर भारी पड़ती है,
हजारों रात कहीं कहीं..
सूखी रोटी के टुकड़ों पर कितनी ज़िंदगियाँ झपटती हैं

खैर, पेट भर चूका है,
दफ़्तर में बहुत आप धापी थी,
लौटते समय ठेके पर मैंने और तुमने,
बुद्धि जीवियों वाली बहुत बातें कर ली ...

When mind is without Fear
and choices are for free..
Then why this kolaveri kolaveri kolaveri di

Sunday, November 13, 2011

Some small trips...

विचारों और संवेदनाओं की मशाल,
पेट की भूख से अधिक ज्वलंत हो जाती हैं;
कभी कभी...
राष्ट्रीयता और धर्म की छाँव,
स्वार्थ की बेड़ियों से स्वतंत्र हो जाती हैं;
कभी कभी...

कुछ छोटी यात्रायें,
बड़ी दूरियां तय करने की मंत्र हो जाती हैं;
कभी कभी...

Friday, October 21, 2011

जब मैं नहीं बोलता, "मय" बोलता है

आलिम के दस्तूर से बेफ़िक्र,
जब मैं नहीं बोलता, "मय" बोलता है  
डरता हूँ, 
कहीं दबी हुई चिंगारी हंगामा न मचा दे.
महफ़िल को शादाब करने की ख्वाइशें
कहीं बस्ती न जला दें.

मेरी स्याही की पैमानों में,
कई रेशमी किस्से उलझे हैं;
मैं सारे अपने किस्सों को, बेज़बान झोले में रखता हूँ 
जब मैं नहीं बोलता, "मय" बोलता है  
डरता हूँ, 
कहीं किस्सों की समझ,
स्याही को बदनाम न करा दे 


Thursday, September 15, 2011

Engineer सब कुछ होता है

कभी In, कभी जिन्न....और कभी Engine होता है
कभी "Gunda", कभी "Troy".. कभी "Original Sin" होता है
Engineer सब कुछ होता है

रात का आवारा परिंदा, दिन भर सोता है
कभी बच्चा, कभी फच्चा...और कभी नाक में दम होता है,
Engineer सब कुछ होता है

कभी मुह पर ताला, कभी भक साला रहता है,
चार-पाँच साल में उसने सब कुछ कर डाला होता है
कभी इश्क में उसकी आँखें नम, कभी वो Atom Bomb होता है
कभी "पापा कहते हैं" कभी "g*d में"दम" होता hai
Engineer सब कुछ होता है

Thursday, September 08, 2011

चीख


कौन सी परिभाषा से करूँ संतुष्ट, स्वं की आधारशिला
मशीनी चाहतो में, चिंगारियों में, भय - भूख में लिपटी 
मेरी आत्मा आज कुंठित है!

ख़ुदा को खोजने के वास्ते हजारों ईंट नोचे हैं,
मंदिर हवन की शान्ति में कितने खून पोछें हैं'
कभी क्रांतियों में सर कटा कर लौट आतें हैं, 
कभी लाठियों से बेवजह ही चोट खातें है.  

किसी लालटेन की रौशनी में दुबकी हुई
हमारी हर लड़ाई, बस बयानों तक सिमित है
और अस्तित्व की कल्पना, शायद
अगले धमाके तक जीवित है!


Tuesday, September 06, 2011

Lines नहीं सीधे हैं

कांधे पर तेरे ओस के शायद बूंद पड़े थें
या जुल्फों से जैसे,
कुछ सपने मेरी आँखों में छलक गए थें;
सब टेढ़ा मेढ़ा दिखता था,
तुमने बोला Lines नहीं सीधे हैं.

खुली दीवारों में,
आसमान के रंगों सी परतें
मानो बचपन हौले हौले झूल रही थी
तुमने बोला Lines नहीं सीधे हैं.

कभी मैं हँसता, 
कभी तुम हँसती
दो आईने सोच सोच कर सबकुछ भूल रहे थें
Icecream के टुकड़ों में 'कच्छ' भूली बातें
पिघल पिघल कर lawn में टेढ़े गिरते थें;
तुमने बोला Lines नहीं सीधे हैं.

दो आवारा, बंजारों से,
चाय की प्याली घोल रहे थें
सब टेढ़ा मेढ़ा दिखता था,
तुमने बोला Lines नहीं सीधे हैं.

Tuesday, July 12, 2011

कभी कभी

Part 1

तुम्हारे ज़िक्र की बारिश में रुह तर गयी 
काशी घाट में गंगा हो जैसे - भर गयी.
बंजारे अब्र की पहले - मंजिल ना राहें थीं
तुम्हारे लफ्ज़ सुनकर जैसे ठहर गया.

Part 2

मौसम का एक टुकड़ा बड़ा सर्द हुआ करता था,
दीवारों को भी कभी मीठा दर्द हुआ करता था.

दिन रात समंदर में उठती, बेचैनी की लहरें थीं,
प्यासी लहरों का भी कोई हमदर्द हुआ करता था.

इक चिड़िया,
ख्वाइशों की संदूक पर हौले से आ जाती थी,
पिछले बारिश जिस संदूक का चेहरा गर्द हुआ करता था.

Tuesday, May 10, 2011

टुकड़े

ज़िंदगी

एक बौरायी सी ख़ुशबू है
कभी भटकने से रोक लेती है,
और कभी भटकने को मज़बूर कर देती है.

सुबह 

सूरज जैसे wrapper में लिपटा हुआ था
और उसके खुलते ही
हम 'ट्रेक्टर' पर बैठ कर,
सुबह की फ़सल काटने चल पड़े 

बहस

तुम मुझपर चीख़ लो,
मैं तुमपर चीख़ लेता हूँ
पत्थरों को रगड़कर उजाला तो न हुआ
अपनी बहस से ही सही,
कहीं आग लगायी जाए

बस 'कंडक्टर'

मैं कुछ महीने भूखा भी सो लेता हूँ
पर सच्चाई जब पेट से लड़ने लगती है,
मुसाफ़िरों के सपनो को रस्ता दिखाना पड़ता है

इश्क़

मैं सवाल ज़वाब, हिसाब किताब नहीं समझता
तुम्हारा ख्याल जब भी आता है 
खुले आकाश में बिखरे तारों की तरह
गंगा की स्वक्ष लहरों में, 
चुपचाप अपनी चमक छोड़ जाता है.

Saturday, April 16, 2011

समाज

अखब़ार का एक टुकड़ा
बाहर से जला हुआ,
और राख़ वाली परिधि के दरमयां
सिर्फ़ तुम्हारा ज़िक्र.

हुमाद की वही खुशबू,
जिसका कोई आकर नहीं, 
जिसकी कोई दिशा नहीं;
ठंडी आवाज़ में बजती घंटियों सा चमकता है,
दीया और पुष्प जैसा नदियों में बिख़र जाता है.

हम घोसला बनाते हैं
जिसपर,
कभी चाँद लटकता है, कभी शराब की बोतलें
कभी वहां चूजों के मासूम सवाल गूंजते हैं,
और कभी दरिंदगी और लालच भरी चीखें.

दीवार के एक कोने पर चढ़कर,
दूसरे कोने पर आहटों का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं सभी,
वज़ह और बहाने अलग हो शायद.

मैं भी समाज हूँ.

Thursday, March 31, 2011

उफ्फ़

तुम कभी हो
इश्क़ का कतरा,
और कभी आवारगी
तुम कभी फ़िरदौस की सूरत
और तुम कभी हो ज़िंदगी
दीवानों का क्या कोई जिस्म
कोई मज़हब नहीं होता है?

तुम कभी चांदनी को फूटपाथ समझकर सो जाते हो,
तुम कभी खुशबू बनकर 
पलकों में भी खों जाते हो
दीवानों का क्या कोई घर,
कोई शहर नहीं होता है?

Wednesday, March 02, 2011

नाव

वहां, 
उन अलसाए रस्तों के किनारे 
सुस्त सा दरिया है कोई. 
कभी बचपन में मैंने 
वहां कागज़ की इक नाव डाली थी. 
सुना है कि, 
आज भी वह नाव वहां मद मस्त बहती है.

कहीं टूटे से छज्जों पर,
परिंदे जब घोसलों में 
अधखुली आँखों से अंगराई लेते हैं
कहीं बिस्तर की सिलवट में 
कुछ ख़्वाब करवटें लेते हैं 
मुझे लगता है कि फिर से नाव बनकर 
नदी में मद मस्त हो जाऊं.

Friday, February 25, 2011

बेवजह


कोई ऐसे भी तो हमसे मिले कभी कभी,
कि बेवजह ही उनसे मुहब्बत होती जाए
मौसम में बेताबी के छीटें कुछ एक गिरें
शरारत हमारी सारी शराफ़ात होती जाए

ख्यालों की हर कशिश, दुआओं में हो कबूल
ख्वाबों की ऐसी कभी गुज़ारिश होती जाए
कोई ऐसे भी तो हमसे मिले कभी कभी,
कि बदनामी हमारी शोहरत होती जाए


Friday, February 18, 2011

फ़ुरसत


ज़िन्दगी के जिस श़क्ल से
हमे मुहब्बत हुआ करती है,
उस इश्क़ को फ़रमाने की 
फ़ुरसत नहीं रहती है.

ऐसा नहीं था कि
आइनों में बस दरारें ही दरारे थीं;
ऐसा भी था नहीं कि,
रास्ते खो जाते थें धुंध में 
और सामने बस संगमारी दीवारे थीं.

साहिर ने जिन चराग़ की
ख्वाइश में उम्र गुज़ार दी,
बाज़ार में उन चरागों की,
जब क़ीमत नहीं रहती है
...बहाने मिलते जाते हैं,
इंसान उलझता जाता है.
  
आलम को अब्र की उचाईयों का नशा है,
और शायर निकम्मा, 
सावन में भीगने को रोता है.

Sunday, February 13, 2011

इश्क़

सुबह छिटक कर,
बिस्तर में आ जाता है
सूरज का कुछ टुकड़ा;
अंगराईयां मेरी- मुट्ठी में उन्हें भर लेती हैं.

'बालकनी' में 
जब भी मिलते हैं आपस में - एक प्याली चाय की चुस्की
और, मिट्टी की सौंधी सी खुशबू;
मैं पंख लगाकर, 
हौले हौले नन्हे पत्तों सा बह लेता हूँ.

थोड़ा थोड़ा चाँद चुराकर,
लिफाफों को रंगते आये हैं - 'तुम और मैं'

लेकिन,
पतझड़ की किसी सांझ को जब,
लालटेन नहीं जलता है, और 
चाहतों की चीख़ नाकाम होती है
हम, राख़ के जैसे बिख़र जाते हैं.
सुलगती जाती है बेचारी ज़िंदगी,
और,
किसी बेनाम चौराहे पर बदनाम होती है.

चलो, 
ओढ़कर इसकी ख़ुशबू, ज़िंदगी से थोड़ा इश्क़ करते हैं,
ज़िंदगी के नाम पर मरने से पहले, ज़िंदगी जी लेते है.

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...