Friday, October 01, 2010

We -The People

उम्र की चादर
जब मेरे घुटने तक हीं आ पाती थी,
और आलिम, फ़ाज़िल, बुद्धिजीवियों की तालिमें
बस्ते में रह जाती थीं,


मैं तेज़ भाग कर चाँद चूमना चाहता था.


अब,
मेरी जिदद जब चाँद से हटकर,
रोटी पर थम आती है;
और अँगीठी पर हाथ सेक कर,
नींद मुझे आ जाती है;


तुम क्यूँ मेरी रोटी को नोंचने,
मेरे गलिआरे आ जाते हो?
कभी मज़हब, कभी जाति बताकर,
मुझको ठगते जाते हो.


वैसे भी,
हर नीलामी में,
मैं अपना वज़ूद बेचने जाता हूँ,
कुछ किस्से अपने कहता, कुछ औरों से सुन आता हूँ.


नीलामी के सिक्के रख लो
रोटी मुझको खाने दो,


आज बहुत मैं भूखा हूँ.

6 comments:

अपूर्व said...

कहानी सिर्फ़ आप की ही नही बल्कि हम सब की है...जिन्हे चाँद का ख्वाब दिखा कर हाथ की रोटी छीन ली जाती है..सोचता हूँ कि कभी मै भी समझदार बनूँगा.आलिम, फ़ाज़िल, बुद्धिजीवियों की ज़द से दूर निकल पाऊँगा..मगर फिर एक सैलाब आता है..और आँखें देखना बंद कर देती हैं..खैर..

बहुत जरूरी और सामयिक मैसेज देती है कविता...

डिम्पल मल्होत्रा said...

चाँद छू लेने की जिद्द कब रोटी की सूरत ले लेती है...नाज़ुक सी ख्वाहिशे ज़िन्दगी की जदोजहद में गुम हो जाती है...सारी तालीमें धरी की धरी रह जाती है..

MangoMan said...

beautifully captured. jealous.

Parul kanani said...

fully agree with sushant..ultimate !

mridula pradhan said...

wah. lajawab.

SUGANDHA said...

woooowwww.I am speechless. this one is 1 of the best...

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...