Monday, January 19, 2009

दादा जी के लिए

बहुत अरसा तो नहीं गुजरा,
न ही इतिहास का कोई ग्रन्थ ख़त्म हुआ है,
मुझे अब भी याद है...
अक्सर,
भीड़ में उंगली पकड़कर,
तुम बचाते थे मुझे,
अंश अपना गर्व से कहते मुझे;
और,छिपा कर गुब्बर्रों में,
बूढे कंधो पर घुमाते थे मुझे।

बूढी झिलमिल आँखों का,
मैं कभी स्वाभिमान था,
मीठे ख्यालों में बुने कहानियो का,
कभी कृष्ण तो ...
कभी राम था।

आज अरसो बाद भी,
तुम्हारी उँगलियों का स्नेह,
और कहानियो का स्पर्श,
मुझमे शेष है।

तुम खो नहीं सकते,
भीड़ और तन्हाई में,
उंगली मेरी,
तुमको खोज लेंगी...

2 comments:

Akshay Rajagopalan said...

बहुत सुन्दर कविता है. मुझे जमशेदपुर के वो दिन याद आ गए जब तुम मुझे और संजीव को अपनी कविताएँ सुनाते थे.

वर्तिका said...

:)

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हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...