Wednesday, January 23, 2008

मैं और मेरा ये मन...


काले धागे को उलझकर जाल बुनता,
सूखे सपनों के तरू से डाल बुनता,
पापी, प्यासा या अभागा रिक्त है ये,
मन अकेला चिर्चिराता,
बुझती राखों को जला फिर चीख सुनता॥

प्रपंच में लिपटे हुए षड्यंत्र बुनता,
अहम को भेट करने मंत्र बुनता,
शतरंज के छोटे दाव पर पागल सा हँसता,
चिर्चिराता, चोट खाता,
बुझती राखों को जला फिर चीख सुनता॥

2 comments:

Anonymous said...

कोई दीवाना कहता है , कोई पागल समझता है ,
धरती की बैचैनी को, तो बस बादल समझता है !
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है ,
ये तेरा दिल समझता है,या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक एहसासों की, पवन सी कहानी है,
कभी कबीरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है,
यहाँ सब लोग कहते हैं,मेरी आँखों में आंशु है,
जो तू समझे तो मोती, ना समझे तो पानी है !!

समंदर पीर का अन्दर है,मगर रो नहीं सकता,
ये आंशु प्यार का मोती है,इसको खो नहीं सकता,
मेरी चाहत को अपना तू, बना लेना,मगर सुन ले,
जो मेरा हो नहीं पाया,वो तेरा हो नहीं सकता !!

Cooper said...

gadar likha hai bhaiya..

हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...