Friday, November 16, 2007

मैं और मेरा ये मन


लड़खराते डगमगाते लम्हा लम्हा फिसल फिसल,
अरमान मेरे, बुलबुले हैं
मनाता रहा मैं ना तू निकल
खुली पगली नयनों में गिले सपने रह गये,
ख्वाबों कि स्याहियों में, पगले बदल बह गयें।

दिल को क्या मनाऊ,पगला मुझसे ही नाराज़ है,
चोट खाके भी नासमझ को प्यार की तलाश है,
चाँद के पीछे उड़ता ,दौड़ता ये थक गया,
धीमी धीमी आंच में धीमा सा ये सुलग गया।

मनाता रहूँ रात भर, दिल बहल तो जाता है,
तेरी याद जैसे आई, फिर से फिसल जाता है;
मैं ना रोकूँ पगले तुझको, अब रुला के भाग जा,
एक बार रो चूका तू, मैं ना अब रुला सकूँगा॥

पगले मन ,लुक्का छिपी खेलते है फ़लक फ़लक,
मनाता रहूँ तुझको मैं, मुझे तू शाम तक॥
फलक फलक शाम तक,
निष्पलक शाम तक..









हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...