ठूठा जंगल ,टूटे रस्ते
फटे पन्नो से भरे कुछ बस्ते;
माली जंगल सीच रहा है,
बच्चा बसता खीच रहा है
जंगल बसंत तक हँसता था,
बच्चा ममता में फंसता था;
पतझड़ चुपके से दस्तक देकर,
जंगल का रस चूस गया...
बच्चे ने भी उन बसतो में शायद,
गीले पन्नो को महसूस किया.
ठूठे जंगल की टहनी को,
कुछ बंजारे काट गए,
शेष बचे कुछ टुकडों को.
दीमक चुपके से चाट गए.
और बच्चा,
सपनो के दर्द की डर से,
शरीर को अपने त्याग दिया.
अपने ही हाथो से उसने,
चिता को अपने आग दिया.
पर सपनो के व्यूह में
बच्चा इतना उलझा था कि
जले शरीर के रख भी अब,
रो रोकर स्वप्न सुनते हैं,
मैंने उन रख को देखा है,
वो " बिखरे बेरंग रख के टुकड़े"
चुपके से अंशु बहते हैं.....
अस्तित्व विलीन कर वो टुकड़े,
अंधकार में चिप जाते हैं.
चुपके से खो जाते हैं
Saturday, November 04, 2006
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